अपराध की जात बताओ भैया


पिछले सप्ताह खुशबू की कवर स्टोरी गायत्री मांगे इंसाफ (http://dailynewsnetwork.epapr.in/290314/khushboo/18-06-2014#page/1/1 )
पर पाठको की खूब प्रतिक्रियाएं मिलीं। ज्यादातर गायत्री के हालात पर दुखी थे तो कुछ का यह भी मानना था कि ये सांसी जाति तो यूं भी आजीविका के लिए शराब और देह व्यापार के अपराध में लिप्त होती है। ये तो पुलिस रिकॉर्ड में भी ‘जरायम पेशा ’ के नाम से दर्ज होते हैं। जरायम फारसी भाषा का शब्द है जिसके मायने अपराध चोरी-डकैती को पेशा बनाने वाली बिरादरी से है। अंग्रेजों के शासनकाल में एेसी कई जातियों को जरायम पेशा समूह में रखा गया था। उनका मानना था कि इन जातियों के समूह के समूह अपराधिक गतिविधियों में लिप्त हैं और यही उनका पेशा है और इनके साथ कोई ढील नहीं बरती जाए।अंग्रेजों से आजाद हुए देश को 67 बरस हो चले हैं लेकिन हमारी पुलिस अब भी इस नजरिए से आजाद नहीं हो पाई है। पुलिस ऐसा ही मानती है और सरकार व समाज ने कभी इस दायित्व को नहीं समझा कि आखिर कब तक हम इन्हें यूंही संबोधित करते रहेंगे और एेसा ही बनाए रखेंगे। इन्हें मुख्यधारा में लाने के प्रयास ना के बराबर हैं। ये यूं ही अलग-थलग पडे¸ हैं।
एक अंग्रेजी अखबार में बीस जून को पहले पन्ने पर प्रकाशित इस खबर में पुलिस का रवैया देखें। अलवर के विराट नगर में एक 46 वर्षीय विधवा की सामूहिक दुष्कर्म के बाद हत्या हो जाती है। बेटियों की शादी हो चुकी हैं और एक बेटा मुंबई में है। पुलिस प्रारंभिक तहकीकात के बाद कहती है- ‘‘एेसा लगता है कि यह किसी संगठित गिरोह जैसे बावरिया और पारदी गैंग का काम है। जिन्होंने दरवाजा तोड़कर जघन्य वारदात को अंजाम दिया।’’ हैरानी होती है कि ये गिरोह इतने बरसों तक़ क्या पुलिस की ढाल बनने का ही काम करते रहे हैं? क्यों पारदी या कच्छा बनियान या कंजर नाम लेकर इन अपराधों पर हमेशा मुहर लगाई जाती है। क्यों ये समुदाय अब तक़ इस दलदल से ही नहीं निकल पाए? क्यों किसी भी सरकार ने इनके विकास का बीड़ा अब तक़ नहीं उठाया? हम बड़े बेफिक्र होकर कह डालते हैं क़ि बेड़िया, बांछड़ा इनका क्या, इनकी स्त्रियां तो यही काम करती हैं? गौरतलब है की मध्य प्रदेश के मन्दसौर, नीमच और राजस्थान के बांसवाड़ा, डूंगरपुर के सीमावर्ती क्षत्रों में यह जाती यही पेशा  अपनाए हुए हैं.  कैसे हम बरसों-बरस इन समुदायों को एेसे ही कटघरों में रखकर इन्हें आरोपों के दायरों में बांधते रहेंगे।
         गायत्री ने आवाज बुलंद की  है। उसे नहीं मंजूर खुद के  लिए एेसे शब्दों का  इस्तेमाल और काम। बचपन में घर छोड़ने की  भूल ने उसे देह व्यापार के दलदल में धकेल दिया। ईमानदारी से समीक्षा की  जाए तो उसका  कथित पति वीर सिंह सांसी भी उसी जरायम पेशा नजरिए का  शिकार है। जिसकी बुनियाद अंग्रेजी रियासत ने रखी थी।वह सामान्य जीवन शैली अपनाना चाहता है लेकिन नजरिया ऐसा होने नहीं देता। सांसी जाति को  भी अपराधी पेशों से जुड़ी जाति माना गया है। इनका  मूल सिंध के  शूद्र राजा और राजपूतों से जुड़ता है । तंग सोच और आधुनिक समाज से कदमताल ना मिला पाने की मजबूरियों ने कई विसंगतियों को  जन्म दिया है।
 एक अन्य मामला भीलवाड़ा का है जहां नौ साल की बच्ची की हत्या का आरोप पुलिस ने उसकी बहन और पिता पर लगाया है। पुलिस का मानना है कि ये कालबेलिया जाति से हैं और देह व्यापार इनका पेशा है। बड़ी बहन यही काम करती थी। अब हालात यह है कि इस बड़ी बहन से अपने हक में बयान उगलवाने के लिए पुलिस अमानवीयता पर उतर आई है। एेसा तब से चल रहा है जब पिता ने बकरियां चराने गई छोटी बेटी की लाश को लेने से मना कर दिया था। उसे किसी ने पत्थर से पीट-पीट कर मार डाला था। हालांकि बाद में लाश ले ली गई लेक़िन अब पुलिस इन्हें ही अपराधी करार देने पर तुली है। राजस्थान कालबेलिया जाती बरसों से इसी जरायम पेशा नजरीये की शिकार है। नतीजतन विकास में भी कौसों पीछे धकेल दी गयी।
पुलिस और समाज कैसे पूरी जाति को अपराध के सुपुर्द कर खुद को मुक्त पा सक़ते हैं। ये जातियां आज भी अभाव में जीने को अभिशप्त हैं। सदियों से इन पर अत्याचार ही हुए हैं और हम सब वही दोहरा रहे हैं। रोजगार का कोई विकल्प इनके सामने नहीं। यहां इन जातियों के अपराध करने की प्रवृत्ति का समर्थन नहीं बल्कि अब भी इन्हें इसी श्रेणी में रखकर कोई प्रयास ना होने का अफसोस है। इनकी शिकायतों पर कोई कार्रवाई और इनकी जरूरतों पर कोई सुनवाई नहीं होती। कोई सांसी, कोई पारदी, कोई कालबेलिया सामान्य जीवन शैली अपनाना भी चाहै लेकिन जरायम पेशा नजरिया ऐसा होने नहीं देता। ऐसे में कैसे कोई समाज अपराध से मुक्त हो सकता है। बेशक गरीबी और अभाव ही इन्हें अपराध की ओर धकेलते हैं। आखिर कब तक अपराध का ठीकरा इनके सिर फोड़कर हम खुद कॉ सभ्य समाज कहलाने क ढोंग करते रहेंगे?

टिप्पणियाँ

  1. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (27.06.2014) को "प्यार के रूप " (चर्चा अंक-1656)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, वहाँ पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।

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