आधुनिकता का सनक से कोई लेना-देना नहीं
वह पढ़ी-लिखी काम-काजी लड़की है। साल 2006 के आसपास उसकी
एक लड़के से ऑन लाइन चैटिंग शुरू होती है। मुलाकातें होती हैं। लड़का
पंजाब का और लड़की दिल्ली की है। मुलाकातें नजदीकियों में बदलती हैं और
दोनों के बीच इस समझ के साथ कि शादी कर लेंगे पति-पत्नी से रिश्ते बन
जाते हैं। 2008 में लड़की गर्भवती हो जाती है तब लड़का यह कह कर गर्भपात
कराने पर जोर देता है कि पहले बहनों की शादी हो जाए फिर वे दोनों शादी कर
लेंगे। ऐसा कुछ नहीं होता और मई 2011 में थाने में लड़की मुकदमा दर्ज
कराती है कि लड़का शादी का वादा क र उसका देह शोषण करता रहा।
यह मामला भी रोज दर्ज होने वाले ऐसे मुकदमों में से एक बनकर रह जाता अगर अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश वीरेंद्र भट्ट उसे बरी नहीं करते। जज ने कहा कि शादी के वादे पर बने संबंध बलात्कार नहीं होते। लड़की पढी-लिखी, समझदार और कामकाजी है उसे समझना चाहिए कि वह रिस्क उठा रही है। कोई गारंटी नहीं है कि वह लड़का वादा पूरा करे।
न्यायाधीश ने यह भी कहा कि शादी से पहले सेक्स की इजाजत कोई धर्म नहीं देता और लड़की को समझना चाहिए कि यह अनैतिक है। दरअसल, यह मामला भले ही दिल्ली का हो, लेकिन भारत के हर शहर में ऐसे कई मामले रोज अखबार की सुर्खियों में होते हैं। यह अजीब है कि एक लड़की उस वादे को इसलिए सच मान बैठती है, क्योंकि वह उसके प्रेम में होती है और जब वह प्रेम में होती है तो यही मानती है कि वह भी प्रेम में होगा। जाहिर है, वह प्रेम में नहीं था। वह भी प्रेम में होता तो शायद रिश्ते के यूं टूटने की नौबत नहीं आती। जज ने दोनों को प्रेम में माना इसलिए बलात्कार की संज्ञा नहीं दी। लड़के को बरी कर दिया। वह प्रेम में नहीं था, धोखेबाज़ था।
यहां शायद लड़कियों को यह समझना होगा कि अगर वे कोई निर्णय लेती हैं तो उसके नतीजे भुगतने के लिए भी उन्हें ही तैयार रहना होगा। अपने निजी क्षणों की जिम्मेदारी निजी स्तर पर ही लेनी होगी। ऐसी खबरें वाकई हास्यास्पद लगती हैं कि 'तीन साल तक शादी का झांसा देकर यौन शोषण करता रहा युवक गिरफ्तार।' वह झांसा देता रहा तो आप क्यों लेती रहीं? छोड़िये उसे और आगे बढ़िए । वह धोखेबाज आपके लायक था ही नहीं। आप खुद को छला हुआ, तन्हा और परास्त पाती हैं तो यह आपका दोष है। आपको कदम नहीं बढ़ाने चाहिए थे। फर्ज कीजिए वह अपने किए की सजा पा भी लेता है तो आपको क्या हासिल होगा? क्या आप स्वयं को मुक्त कर पाएंगी? आप पहले की तरह सामान्य हो पाएंगी? आप किसी पर भी भरोसा करने की हालत में होंगी? दरअसल, प्रयास इन सवालों के जवाब पाने के लिए होने चाहिए। आपकी जिंदगी से बड़ा कुछ नहीं। जीवन में गलतियां होती हैं, उन्हें भूलकर आगे बढऩे के प्रयास होने चाहिए। अपने फैसलों को स्वीकारने का नैतिक साहस होना बहुत जरूरी है। खासकर, तब जब आप आत्मनिर्भर हैं।
आत्मनिर्भरता से भरा साहसी बयान इन दिनों सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर खूब पढ़ा जा रहा है। जिसमें एक आत्मनिर्भर लड़की कह रही है, मां बनने की इच्छा और जरूरत का सात फेरों से कोई लेना-देना नहीं। ईश्वर धर्म कचहरी से भी कोई लेना-देना नहीं। उसका सिर्फ हार्मोन्स से लेना-देना है। जज को अठारवीं सदी की सोच से मुक्त होना चाहिए। मैं इस सदी की लड़की हूं और चाहूं तो अपनी मर्जी से मां बन सकती हूं। मुझे पूरा हक है कि मैं बिना शादी के बच्चे की चाहत रखूं। दरअसल, एेसा सोचने वाली लड़कियों की तादाद बढ़ रही है। वे इस कदर आत्मनिर्भर हैं कि उन्हें यह साझा काम अकेले के बस का लगता है। एकला चालो रे.. को वे यहां भी सच साबित करना चाहती हैं। इतिहास ऐसी मांओं की गाथाओं से भरा है। शकुंतला ने भरत की , सीता ने लव-कुश की और मां मरियम ने ईसा की अकेले ही तो परवरिश की है।
इब्न ए मरियम हुआ करे कोई
मेरे दुख की दवा करे कोई ।।
इब्ने ए मरियम यानी मरियम के बेटे। मिर्जा गालिब ने यह शेर यूं ही नहीं कहा है। स्त्री सचमुच मुकम्मल है इन दायित्वों को पूरा करने के लिए, फिर भी बच्चे की परवरिश के लिए रथ के दोनों पहियों की दरकार है। अभिनेत्री नीना गुप्ता ने बेटी को इसी तरह पाला। परिस्थितियां जीने का हुनर सिखा देती हैं, लेकिन बच्चे केवल पिता के साथ या केवल मां के साथ इसलिए नहीं होने चाहिए, क्योंकी इनके सर पर एक सनक सवार थी कि वे ऐसा कर सकते हैं। हालात का सामना डटकर किया जाता है। सनक का नहीं। आधुनिकता का सनक से लेना-देना नहीं होना चाहिए।
यह मामला भी रोज दर्ज होने वाले ऐसे मुकदमों में से एक बनकर रह जाता अगर अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश वीरेंद्र भट्ट उसे बरी नहीं करते। जज ने कहा कि शादी के वादे पर बने संबंध बलात्कार नहीं होते। लड़की पढी-लिखी, समझदार और कामकाजी है उसे समझना चाहिए कि वह रिस्क उठा रही है। कोई गारंटी नहीं है कि वह लड़का वादा पूरा करे।
न्यायाधीश ने यह भी कहा कि शादी से पहले सेक्स की इजाजत कोई धर्म नहीं देता और लड़की को समझना चाहिए कि यह अनैतिक है। दरअसल, यह मामला भले ही दिल्ली का हो, लेकिन भारत के हर शहर में ऐसे कई मामले रोज अखबार की सुर्खियों में होते हैं। यह अजीब है कि एक लड़की उस वादे को इसलिए सच मान बैठती है, क्योंकि वह उसके प्रेम में होती है और जब वह प्रेम में होती है तो यही मानती है कि वह भी प्रेम में होगा। जाहिर है, वह प्रेम में नहीं था। वह भी प्रेम में होता तो शायद रिश्ते के यूं टूटने की नौबत नहीं आती। जज ने दोनों को प्रेम में माना इसलिए बलात्कार की संज्ञा नहीं दी। लड़के को बरी कर दिया। वह प्रेम में नहीं था, धोखेबाज़ था।
यहां शायद लड़कियों को यह समझना होगा कि अगर वे कोई निर्णय लेती हैं तो उसके नतीजे भुगतने के लिए भी उन्हें ही तैयार रहना होगा। अपने निजी क्षणों की जिम्मेदारी निजी स्तर पर ही लेनी होगी। ऐसी खबरें वाकई हास्यास्पद लगती हैं कि 'तीन साल तक शादी का झांसा देकर यौन शोषण करता रहा युवक गिरफ्तार।' वह झांसा देता रहा तो आप क्यों लेती रहीं? छोड़िये उसे और आगे बढ़िए । वह धोखेबाज आपके लायक था ही नहीं। आप खुद को छला हुआ, तन्हा और परास्त पाती हैं तो यह आपका दोष है। आपको कदम नहीं बढ़ाने चाहिए थे। फर्ज कीजिए वह अपने किए की सजा पा भी लेता है तो आपको क्या हासिल होगा? क्या आप स्वयं को मुक्त कर पाएंगी? आप पहले की तरह सामान्य हो पाएंगी? आप किसी पर भी भरोसा करने की हालत में होंगी? दरअसल, प्रयास इन सवालों के जवाब पाने के लिए होने चाहिए। आपकी जिंदगी से बड़ा कुछ नहीं। जीवन में गलतियां होती हैं, उन्हें भूलकर आगे बढऩे के प्रयास होने चाहिए। अपने फैसलों को स्वीकारने का नैतिक साहस होना बहुत जरूरी है। खासकर, तब जब आप आत्मनिर्भर हैं।
आत्मनिर्भरता से भरा साहसी बयान इन दिनों सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर खूब पढ़ा जा रहा है। जिसमें एक आत्मनिर्भर लड़की कह रही है, मां बनने की इच्छा और जरूरत का सात फेरों से कोई लेना-देना नहीं। ईश्वर धर्म कचहरी से भी कोई लेना-देना नहीं। उसका सिर्फ हार्मोन्स से लेना-देना है। जज को अठारवीं सदी की सोच से मुक्त होना चाहिए। मैं इस सदी की लड़की हूं और चाहूं तो अपनी मर्जी से मां बन सकती हूं। मुझे पूरा हक है कि मैं बिना शादी के बच्चे की चाहत रखूं। दरअसल, एेसा सोचने वाली लड़कियों की तादाद बढ़ रही है। वे इस कदर आत्मनिर्भर हैं कि उन्हें यह साझा काम अकेले के बस का लगता है। एकला चालो रे.. को वे यहां भी सच साबित करना चाहती हैं। इतिहास ऐसी मांओं की गाथाओं से भरा है। शकुंतला ने भरत की , सीता ने लव-कुश की और मां मरियम ने ईसा की अकेले ही तो परवरिश की है।
इब्न ए मरियम हुआ करे कोई
मेरे दुख की दवा करे कोई ।।
इब्ने ए मरियम यानी मरियम के बेटे। मिर्जा गालिब ने यह शेर यूं ही नहीं कहा है। स्त्री सचमुच मुकम्मल है इन दायित्वों को पूरा करने के लिए, फिर भी बच्चे की परवरिश के लिए रथ के दोनों पहियों की दरकार है। अभिनेत्री नीना गुप्ता ने बेटी को इसी तरह पाला। परिस्थितियां जीने का हुनर सिखा देती हैं, लेकिन बच्चे केवल पिता के साथ या केवल मां के साथ इसलिए नहीं होने चाहिए, क्योंकी इनके सर पर एक सनक सवार थी कि वे ऐसा कर सकते हैं। हालात का सामना डटकर किया जाता है। सनक का नहीं। आधुनिकता का सनक से लेना-देना नहीं होना चाहिए।
आधुनिकता में स्त्री पुरुष के नैसर्गिक संबंध से परे जाना या विवाह की संस्था को नकारना समाज में विकृति ही उत्पन्न करेगी.
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट : सांझी : मिथकीय परंपरा
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन कहीं ठंड आप से घुटना न टिकवा दे - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंसहमत हूँ ... आजकल आधुनिकता सनक ही बनती जा रही है ... बिना सोचे समझे कदम उठाए जा रहे है | बाद मे सिवाए पछतावे के कुछ हासिल नहीं होता |
जवाब देंहटाएंIts more of westernisation rather than modernisation. A thin line !
जवाब देंहटाएंआपका शीर्षक ही सब कहता है !
जवाब देंहटाएंसहमत हूँ..... आधुनिकता के मायने सही अर्थों में समझे जाएँ .....
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