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अश्लीलता को शब्द  देने वाले
भारतीय कानून के मूल में एक ही
भाव है कि किसी महिला की
गरिमा को ठेस न पहुंचे। यह भाव
सर्वोपरि है कि किसी परिवार के
सामाजिक रुतबे और साख पर
कोई आंच नहीं आए।
हमारे यहां ऐसा है और यूं ये
परिकल्पना पूरी दुनिया के देशों में
वहां की सांस्कृतिक अवधारणा के
हिसाब से बदलती रहती है। ऐसे
में सवाल यह उठता है कि जब
स्त्री की अपनी ही भूमिका परिवार
और समाज में बहुत बदली है वहां
 1860 के अंग्रजों के जमाने के ये
कानून किस तरह साथ देते हैं।
दूसरा सवाल यह उठता है कि जब
सब कुछ एक क्लिक  की दूरी पर
हो, शहर के थिएटर में 'जंगली
जवानी' 
जैसी कोई फिल्म चल
रही हो, प्ले बॉय जैसी पत्रिकाओं
में स्त्री की उत्तेजक तस्वीरें हो,
पारिवारिक पत्रिकाओं में ही
सर्वे के नाम पर कई बातें हो, वहां
इस कानून की रक्षा किस कदर
की जा सकती है?
नर्स भंवरी देवी के एक
विधायक मंत्री 
महिपाल मदेरणा  के साथ संबंधों की
सीडी को कुछ टीवी चैनल्स ने
खूब दिखाया। अखबार के दफ्तरों
ने भी इसे देखा। जाहिर है
प्रकाशन और प्रसारण के निर्णय
से पहले इसे देखना जरूरी था।
कुछ मनचलों ने इसे अपने मित्रों
को भी फॉरवर्ड कर दिया।क्या यह अपराध नहीं था?
इस
पूरे प्रकरण में भंवरी देवी जो कि
एक स्त्री थीं , उनकी गरिमा तारतार
हो चुकी थी। कानूनन यह
सरासर उल्लंघन था। हमने अपने
ही नैतिक मानदंड बना लिए और
कहा कि जब उन्हें अपने चरित्र की
फिक्र नहीं तो हमें क्यों हो। हैरानी
तो तब हुई है जब कई ब्लोग्स ,
बहस और चर्चाओं ने भंवरी के
हश्र (अपहरण के बाद हत्या) को
इसलिए जायज करार दिया
 
क्योंकि वे अति महत्वाकांक्षी थीं
और सत्ता  के गलियारों में
मुंहजोरी करती थीं। क्या तब वह
कानून ताक पर नहीं था।


मरहूम मकबूल फिदा हुसैन
ने जब सरस्वती
 का चित्र

बनाया तो लोगों ने इसे धार्मिक
हमला बताया। उनके खिलाफ कई
अदालतों में मामले दर्ज हो गए।
हमने मां शारदा को इतना ही मान
दिया कि कोई उन्हें पेंट करे और
हम उत्तेजित हो जाएं। हमारी
आस्था ने यही देखा कि वह गैर
हिंदू हैं और उनकी नीयत देवीदेवताओं
 को निर्वस्त्र करने की ही
रही होगी। आस्था ने यह देखने
से इनकार कर दिया कि रामायण
की समूची सीरिज इस कलाकार
ने पेंट की है। इंदिरा गांधी को
दुर्गा के रूप में भी पेंट किया है।
उनकी फिल्म 'गजगामिनी' सौ
फीसदी भारतीय संस्कृति का ही
एहतराम है। भारतीय मिट्टी में जीने
वाले पेंटर की एक पेंटिंग
ने उन्हें अपने ही देश में
अपराधी बना दिया और उन्हें
एक पराए देश की मिट्टी
ओढ़कर सोना पड़ा।

हमारे कायदे कानून न
कलाकार को समझ पा रहे हैं, ना
स्त्री की अस्मिता का मजाक बन
पाने से रोक पा रहे हैं। विज्ञापन,
सिनेमा, रिअलिटी शोज,
मैगजीन्स, कहां पर स्त्री गरिमा के
साथ मौजदू है? पोर्नोग्राफी का
पुरजोर विरोध करने वाले देश का
एक टीवी चैनल पोर्न स्टार को
लाकर लोगों से वोट पड़वाता रहा।
दोहरे और अश्लील संवाद
बोलनेवाले सर्कस की टीआरपी
बरसों-बरस बढ़ती जा रही है।
शीला की जवानी और मुन्नी की
बदनामी इतनी लोकप्रिय होती है
कि अच्छे गीतकार को अपने
वजूद का एहसास होना ही बंद हो
जाता है। आइटम सॉन्ग जो
सम्मान हासिल करता जा रहा है
वह अभूतपूर्व है।
दरअसल, हम दोहरी
मानसिकता में जीने वाला समाज
हैं। देखने की मानसिकता चरम
पर न होती तो ये तमाम संचार
माध्यम स्त्री की मादक अदाकारी
से ना रंगे होते। उसकी सेंशुअस
छवि का बाजार बहुत बड़ा है
योंकि उसकी मांग बहुत है।
सीधे-सपाट चरित्र की कोई पूछ
नहीं है। कोई ट्रेड रेंकिंग नहीं।
श्लीलता की हर रोज मृत्यु हो
रही है। अश्लीलता उस पर
सामाजिक दल बल के साथ हावी
है। समाज बदल रहा है, नैतिकता
के मानदंड बदल रहे हैं। कानून
भी पुरानी हिरासत में कैद नहीं
रहना चाहिए। स्त्रियां भी तय कर
लें कि वह बाजार के मुताबिक
खुद को और अपनी देह को नहीं
ढालेंगी तब ही यह कायदा अपनी
धार बनाकर रख सकता है। नो
मोर डर्टी पिक्चर्स।

टिप्पणियाँ

  1. न न करते, वही परोस देते हैं, चैनल वाले...

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  2. किसी भी संवेदनशील इन्सान के मन में ये सारे सवाल आते ही है..... कथनी और करनी का अंतर इस देश में कैसा और कितना है , क्या कहें ...?

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  3. होना क्या चाहिए और क्या होता है में बहुत फर्क है ...

    जवाब देंहटाएं
  4. आपकी बहुत सी बातों से सहमत लेकिन हुसैन की तरफदारी पर आपत्ती है।

    जवाब देंहटाएं
  5. तर्क प्रभावी है लेकिन जरा सोंचिए - कोई सनिक सौ बार देश की रक्षा करता है और अंततः एक बार दुश्मनों से मिल जाता है तो उसके द्वारा किये गए अच्छे कर्मों के एवज में उसे माफ़ कर दें ? हुसैन साहब के सन्दर्भ में मैंने कहा है.

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  6. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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