वंदे मातरम्-यानी मां, तुझे सलाम
आज मेरे अराध्य शाहिद मिर्जा का लेख आपकी नजर। यह 2006 में राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। यह अफसोसनाक है कि राष्ट्रगीत वंदे मातरम् को लेकर मुल्क में फित्ने और फसाद फैलाने वाले सक्रिय हो गए हैं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने तय किया कि 7 सितम्बर वंदे मातरम् का शताब्दी वर्ष है। इस मौके पर देशभर के स्कूलों में वंदे मातरम् का सार्वजनिक गान किया जाए। इस फैसले का विरोध दिल्ली की जामा म ç स्जद के इमाम ( वे स्वयं को शाही कहते हैं ) अहमद बुखारी ने कर दिया। बुखारी के मन में राजनीतिक सपना है। वे मुसलमानों के नेता बनना चाहते हैं। बुखारी को देश के मुसलमानों से कोई समर्थन नहीं मिला। देश के मुसलमान वंदे मातरम् गाते हैं। उसी तरह जैसे कि ` जन - गण - मनं गाते हैं। ` जन - गण - मनं कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अंग्रेज शासक की स्तुति में लिखा था। बहरहाल जब ` जण - गण - मनं को आजाद भारत में राष्ट्रगान का दर्जा दे दिया गया तो देश के मुसलमान ने भी इसे कुबूल कर लिया।...
एक शिकायत या फिर हकीकत..
जवाब देंहटाएंखूब.. किसी ने रोका क्यों नहीं.. शायद हर मन में यह वाक्य कभी कभी ना कभी ध्वनित हॉट होगा.
जवाब देंहटाएंमनोज
http://manojkhatrijaipur.blogspot.com/
जीवन की यही तो त्रासदी है, "... एक धुन्ध से आना है, इक धुन्ध में जाना है ..." जो सामने है बस वही दिख रहा है, नश्वर, अशाश्वत।
जवाब देंहटाएंकितने मोहक अंदाज में आपने बात कही है...ओह...
जवाब देंहटाएंमन मुग्ध हो गया....
बाकी क्या कहूँ...अनुराग जी(स्मार्ट इंडियन) ने मेरे मन की कह ही दी...उनके स्वर में अपना स्वर मिलाती हूँ...
प्रवीण पाण्डेय March 5, 2011 1:59 PM
जवाब देंहटाएंकभी लगता है कि हिचक मिटा कर पुकार लेते।
. . .और एक दिन
जवाब देंहटाएंसब शून्य
कोई किसी से नहीं पूछेगा
किसने मुझे जाने दिया...........
..यूँ लगता है कि जाना एक क्रिया ही नही एक प्रक्रिया है..फिर रुक-जाना मे भी वही जाना छिपा है..मगर चीजें हमेशा बदलती नही..हमारे चाहे भर से..
जवाब देंहटाएंअक्ल को ये शिकायत है हमसे/ हमने अक्सर जुनूँ से काम लिया
जवाब देंहटाएंइस अशआर पे एक बेहद पुरकशिश शेर याद आता है..फ़राज साब का..मेरा पसंदीदा भी..जिंदगी की फिलासफी समेटे..पढ़ा होगा आपने..
अक्ल हर बार दिखाती थी जले हाथ अपने
दिल ने हर बार कहा, आग परायी ले ले।
कुछ अलग सा लगा यहाँ ....शुभकामनायें आपको !!
जवाब देंहटाएंऔर इस तरह कुछ भी विस्थापित नहीं होता... रूपायित हो जाने से पहले एक ख़याल फिर से ठहर जाता है कि यही दुनिया है तो ऐसी दुनिया क्यों है ?
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