शाहिद मिर्जा की एक कविता


फाकलैण्ड रोड

पीला हाउस की असंख्य रंडिये
शाम ढलते ही
सस्ता पावडर और शोख लिपस्टिक पोत कर
खड़ी होने लगी हैं
फाकलैण्ड स्ट्रीट के दोनों तरफ
क्या बसा है उनकी उजाड़ आंखों में
सुकून नहीं
इसरार नहीं
ललक नही
उम्मीद नहीं
खौफ हां
भूख हां
बेचैनी हां
अवमानना हां
बेपनाह बोझे जैसी बेबसी बसी है
पेट और उसके अतराफ
अलाव की शक्ल में
लोग कहते हैं एड्स दे रही हैं ये रंडियें
कोई नहीं कहता
हम उन्हें आखिर क्या देते हैं?

टिप्पणियाँ

  1. shukriya yah kavita unhone 1991 me europe yatra ke douran likhi thi

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  2. हम उन्हें क्या देते हैं? सटीक सवाल करती है शाहिद जी की कविता।
    कविता ने शाहिद जी की याद दिला दी और दिल भर आया। शाहिद जी के दिनमान में छपे हुए कुछ लेख उपलब्ध हों तो जरुर ब्लॉग पर डालिए। उनके लेख नई पीढी के कला समीक्षकों के लिए मार्गदर्शक का काम करेंगे।

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  3. वर्षाजी.
    शाहिद भाई
    कभी भी हमारी ज़िन्दगी से नहीं जाते.
    लगता है बस इन्दौर से जयपुर ही तो गए हैं.

    आप उन्हें बार बार इस ब्लॉग पर लाते रहियेगा,बहुत दिन हो जाते हैं उनसे मिले तो मन भारी हो जाता है.पापा भी शिद्दत से याद करते हैं उन्हें.हम सब की याद दीजियेगा उन्हें...आप तो रोज़ ही मिलतीं होंगीं उनसे ?

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  4. namaskar,
    kya kahoon sanjayji, nami to in aankhon me hamesha hi bani rahti he lekin aapki in panktiyon ne aap to unse roz hi milti hongi... barsa diya.yakeen maniye yah shahidji ka hi blog he. mere pas jo kuch bhi he unhi ka he.papa ko pranam.

    जवाब देंहटाएं
  5. varshaji, ek gujarish hai aapse, mirza saheb ke purane lekhan se nai pidhi ko rubaru karayen, kyonki ve nai pidhi ki sashakt aavaz the.

    जवाब देंहटाएं
  6. कोई नहीं कहता
    हम उन्हें आखिर क्या देते हैं?

    sach me,agar hum unhe kuch de pate to shayad unko ye sab nahi karna padta.

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  7. sabka shukriya
    sach he agar ham unhe kuch de pate to yah noubat hi kab aati?

    जवाब देंहटाएं

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