कुंठित कनेक्शन

स्त्री-पुरुष संबंध, सृष्टि की बेहद भरोसेमंद बुनियाद। परस्पर विपरीत होकर भी एक-दूसरे के लिए समर्पित । ऐसा समभाव जहां न कोई छोटा न बड़ा। बावजूद इसके जब हम आधी दुनिया में झांकते हैं तो यह खूबसूरत कनेक्शन एक कुंठित कनेक्शन बतौर सामने आता है। इस कुंठा से घर भी महफूज नहीं। हर चेहरे की अपनी कहानी है। सदियों से होते आए व्या
भिचार में आज बड़ा टि्वस्ट आया है। आज की लड़की तूफान से पहले ही किसी सायरन की तरह गूंज जाना चाहती है..
हर कहानी के पहले चंद पंक्तियां होती हैं-`इस कहानी के सभी पात्र काल्पनिक हैं। इनका सच होना महज संयोग हो सकता है, लेकिन हम स्पष्ट करना चाहते हैं कि खुशबू की कथा के सभी पात्र सच्चे हैं और इनका सच होना महज संयोग नहीं, बल्कि वास्तविक होगा।´
सजला अपने नाम के उलट थी। रोना-धोना उसकी फितरत के विपरीत था, लेकिन आज आंखें बह रही थीं। पन्द्रह साल की काव्या ने जो यथार्थ साझा किया था, उसे सुनकर वह कांपने लगी थी। काव्या ने बताया कि पिछले रविवार जब हम मौसाजी के घर गए थे तो ऊपर के कमरे में काव्या को अकेली देख उन्होंने उसे बाहों में भींचकर किस करने की कोशिश की। काव्या ने अपने पूरे दांत उस हैवान के गालों पर जमा दिए और भाग छूटी। सजला ने बेटी को समझाया। चुप बेटी इस बात का जिक्र भी किसी से नहीं करना, वरना तेरी मौसी की जिंदगी...नहीं मम्मी आपको चुप रहना है तो रहिए, मैं चुप नहीं रहूंगी। मौसी , पापा सबको बताऊंगी। आपको नहीं मालूम उन्होंने मोना (सजला की बहन की बेटी) के साथ भी यही सब किया था। काव्या यह सब कहे जा रही थी, लेकिन सजला का वहां केवल तन था। मन तो अतीत की अंधेरी गलियों में पहुंच चुका था। सजला अपने बड़े जीजाजी के दुष्कर्मों का शिकार हो चुकी थी। तब वह केवल चौदह साल की थी। न जाने किन अघोषित मजबूरियों के चलते उसने घटना का विरोध तो दूर कभी जिक्र भी नहीं किया। वह घृणित शख्स सबकी मौजूदगी में हमेशा सहज और सरल बना रहता। सजला बिसूरती रह जाती। आज जब काव्या का रौद्र और मुकाबलेभरा रुख सजला ने देखा तो अपने लिजलिजे व्यक्तित्व पर बेहद शर्म आई।
न जाने कितनी स्त्रियों के साथ कितनी बार ये हादसे पेश आए होंगे, इसका अंदाजा लगाना उन स्त्री और पुरुषों लिए कतई सहज नहीं है, जो संयोग से बच गईं और जो स्वभाव से संयमी और चरित्रवान हैं। सहनशील बनों, दूसरों के लिए खुद को न्यौछावर कर दो , जोर से नहीं बोलो जैसी जन्म घुटि्टयों ने स्त्री को न जाने किन बंधनों में बांध दिया कि वह हर अन्याय सहने के लिए प्रस्तुत रहीं। यौन उत्पीड़न को भी खुद की इज्जत से जोड़कर देखने लगी। अगर कुछ कहा तो लोग उसे ही बदनाम करेंगे। इस अलिखित बदनामी ने उसे इतना भीरू और कमजोर बना दिया कि वह चुप्पी में ही भलाई देखने लगी। नजमा ऐसी नहीं थी। अब्बू की लाड़ली नजमा को देख जब घर के पीछे रहने वाले चचा ने अश्लील इशारे किए तो वह चुप नहीं रही। मूंछों पर बट देने वाले चचा अब छिपे छिपे फिरते हैं। मीरा नायर की फिल्म `मानसून वेडिंग´ की एक पात्र अपने चाचा की हरकतों की शिकार बचपन में ही हो गई थी। उस उम्र में जब लड़की अच्छे-बुरे, मान-अपमान से परे होती है। शातिर अपराधी इसी उम्र और रिश्ते की निकटता का फायदा उठाते हैं। अपने चाचा का विरोध वह बड़ी होकर तब कर पाती है, जब चाचा एक और मासूम बच्ची को चॉकलेट का लालच दे रहे होते हैं।चौबीस साल की नीता एमबीए है और प्राइवेट कंपनी में एçक्जक्यूटिव। ट्रेन में सूरत से जयपुर आ रही थी। रात का वक्त था। एसी थ्री कोच में एक अधेड़ अपनी सीट छोड़कर उसके पास आकर लेट गया। नीता चीखकर भागी तो वह उसका पीछा करने लगा। बेटी-बेटी क्या हुआ। नीता नहीं पिघली। रेलवे पुलिस को शिकायत कर उसे गिरफ्तार करवाया और हर पेशी पर पूरी ईमानदारी से जाती है। न्यायिक पचड़ों के अलग पेंच हैं, उस पर रोशनी फिर कभी।
पूनम के जीजाजी बड़े रसिया किस्म के थे। जीजी सब जानती थीं या अनजान बनी रहती थीं, पूनम को समझ नहीं आया। जीजाजी बड़े मशगूल होकर स्त्रियों के अंगों-प्रत्यंगों का ब्यौरा देते रहते। जीजी कभी छोटी हंसी तो कभी बड़े ठहाके लगाया करती। एक दिन मौका देखकर जीजा महाशय पूनम के साथ ज्यादती पर उतारू थे। पूनम चूंकि इस अंदेशे को भांप चुकी थी, इसलिए स्कूल में सीखे जूडो-कराते के भरपूर वार जीजा पर किए और उसके पिता के सामने पूरा ब्यौरा रख दिया। सारी बातें इतने वैज्ञानिक तरीके से सामने रखी गई कि जीजाजी को लगा कि जमीन फट जाए और वो गड़ जाएं। पूनम फिर कभी जीजी के घर गई नहीं और न ही इस बात की परवाह की कि जीजी और जीजाजी के संबंधों का क्या हुआ होगा।अंजू के हॉकी कोच निहायत शरीफ और समपिüत नजर आते थे। अंजू उनके अंदाज और खेल पर फिदा थी। कोच साहब जब अपना दर्जा भूल ओछी हरकत पर उतर आए तो फिर अंजू ने भी एसोसिएशन के पदाधिकारियों के सामने कच्चा चिट्ठा खोलकर रख दिया।
आज की लड़कियां सजला की तरह इस्तेमाल होने को अपनी नियति नहीं मानती और न ही घृणित हरकतों पर परदा डालने में यकीन करती हैं। स्वाभिमान को ठेस उन्हें बर्दाश्त नहीं। यह आत्मविश्वास उन्हें शिक्षा ने दिया है। आर्थिक आजादी ने दिया है जहां वे किसी के रहमोकरम पर पलने वाली बेचारी लड़की नहीं है। आर्थिक आजादी हासिल कर चुकी कामवाली महिला में भी आप इस आत्मविश्वास को पढ़ सकते हैं। घरेलू हिंसा और यौन आक्रमणों का प्रतिकार वह करने लगी है। कभी भारतीय रेलवे के शौचालयों की दीवारों पर गौर किया है आपने। भारतीय समाज की यौन कुंठाओं का कच्चा चिट्ठा होता है वह। भद्दी गालियां, स्त्री अंगों की संरचना के अश्लील रेखाचित्र किसी भी शालीन शख्स को गुस्से और घृणा से भर देते हैं। मनोवैज्ञानिक भले ही इसे बीमारी की संज्ञा दें, लेकिन हमारा समाज ऐसा नहीं मानता। वह इसी नजरिए से देखने का अभ्यस्त है, लेकिन वह मां क्या करे, जिसके बच्चे अभी-अभी पढ़ना सीखे हैं और हर शब्द को पहचानने की समझदारी दिखाने में कहीं चूकना नहीं चाहते? बसों के हवाले से मनजीत कहती है मैंने दिल्ली की बसों में यात्रा की थी कभी। यात्रा नहीं यातना थी। पुरुष भीड़ की आड़ में सट के खडे़ होते और अश्लील हरकतें करते। मैंने  जब एक थप्पड़ रसीद किया तो वह क्या है . . .क्या है  . . .कह कर मुझ पर हावी होने लगा लेकिन मौजूद लोगों ने मेरा साथ दिया।छेड़खानी का एक मामला पंजाब पुलिस के तत्कालीन डीजीपी के पी एस गिल से भी जुड़ा है। बीस साल पहले उन्होंने एक पार्टी में आईएएस रूपन देओल बजाज को स्पर्श कर अभद्र टिप्पणी की थी। सत्रह साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने गिल को दो लाख रुपए जुर्माना और पचास हजार रुपए मुकदमे की कीमत अदा करने के निर्देश दिए।
इन दिनों एक शब्द अक्सर अकसर इस्तेमाल किया जाता है `ऑनर किलिंग´। आरुषि-हेमराज मामले में नोएडा पुलिस ने भी किया। लड़की से कोई मामला जुड़ा नहीं कि माता-पिता उसे खानदान की इज्जत से तौलने लग जाते हैं। मानो सदियों की इज्जत एक लड़की के सर पर रखा मटका हो, जिसके फूटते ही सब-कुछ खत्म हो जाएगा। हम यह भूल जाते हैं कि सबसे पहले हम इनसान हैं, जहां गलती की गुंजाइश रहती है। कब तक हम लड़की के लड़की होने का दोष देते रहेंगे। यदि वाकई लड़कों को इस सोच के साथ पाला जाए कि लड़की खूबसूरत कोमल काया के अलावा कुछ और भी है तो यकीनन हम स्त्री को देखने की दृष्टि भी बदली हुई पाएंगे। रिश्तों की आड़ में सक्रिय दरिंदे लड़की के कमजोर व्यक्तित्व का लाभ उठाते हैं। तीर निशाने पर न भी लगे तब भी उनका कुछ नहीं बिगड़ता। वे जानते हैं कि अधिकांश बार दोष लड़की में ही देखते हैं। वे मुक्त हैं। जब तक लड़की होना ही अपराध की श्रेणी में आता रहेगा, तब तक अपराधी यूं ही बचते रहेंगे। समय के बदलाव ने काव्या को मुखर बनाया है। वह सजला जैसी दब्बू और अपराधबोध से ग्रस्त नहीं है। उसे गर्व है अपने स्त्रीत्व पर। ख़ुद पर गर्व किए बिना वह अपनी लड़ाई कभी नहीं जीत पाएगी।

टिप्पणियाँ

  1. Madam i read that but i can't say.
    aap sahi sochti hai.
    Aap jesa likhti hai vese hi Sabhi
    Jarurt mand ki madat bhi kare.

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  2. वर्षा, बहुत गंभीर मुद्दा उठाया है आपने। यह हमारे समाज की बड़ी कड़वी, मगर गोपनीय सच्चाई है। जिस लड़की से भी बात करो, पता चलता है कि उसके साथ कभी न कभी ऐसी जघन्य हरकत हो चुकी है और ये हरकत करनेवाले कोई गैर नहीं, अपने ही चाचा, ताऊ, मामा, चचेरे-ममेरे भाई या कोई पड़ोसी अंकल होते हैं। दिक्कत ये है कि ज्यादातर मम्मियां सजला जैसा रुख ही अपनाती हैं। और बच्चियों ही नहीं, बच्चों के साथ भी ऐसा सलूक होता है शहरों से लेकर गांवों तक।

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  3. apne likh dala aur humne padh dala i personaly feel that we should educate our children regarding this subject n make them strong to fight such elements of society. keep writing such articles . my best wishes.

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  4. varsha ji blog jagat me aqane k liye badhai.blogjagat aapki kalam ki khushboo se ab mahka karega

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  5. versha ji taareef usi ki ki jaati h jo taareef ke kabil ho-jis din mai bhi aap ki tarah samvedna mahasoos karne laggoo fir apki taarif ko kabool kar looga--baharhal aap apne kam me isi tarah lagi rahe itihas ek din apne aap me aap ko samahit krne ke liye majboor hoga--dhirendra from hindusthan samachar new delhi

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