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ये बुलडोज़रों जैसी सख्त हुकूमतें

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  एक आठ साल की बच्ची बुलडोज़र से ढहते और जलते हुए घर से अपनी किताबें लेकर दौड़ती है ताकि यह तबाही उसकी पढ़ाई को ना रौंद दे। यह दृश्य वाकई बहुत क्रूर है, संविधान के मौलिक अधिकारों का हनन है और भारत का कानून कभी इसकी अनुमति नहीं देता है। क़ानून इस बात की भी इजाज़त नहीं देता है कि पुलिस मुठभेड़ में मार दिए गए आरोपी के परिवार और उसके आस-पास के घरों को शासन का अमला ज़मींदोज़ कर दे और फिर प्रचारित करे कि यह हमारा 'बुलडोज़र जस्टिस' है। यह भारतीय संविधान की उस भावना की भी अवहेलना है जो मानती है कि अपराध साबित होने तक हर आरोपी निर्दोष है और किसी एक के अपराध की सज़ा उसके परिवार को नहीं दी जा सकती।  मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट के दो जज जस्टिस अभय एस ओका और जस्टिस उज्जल भुइयां की पीठ ने कहा - "नागरिकों के सिर की छत ऐसे नहीं गिराई जा सकती। ये मामले हमारे विवेक को झकझोर देते हैं। यह क़ानून और मानवता के ख़िलाफ़ है।" कोर्ट ने 'बुलडोज़र न्याय' को बुल्डोज़र अन्याय साबित करते हुए  प्रत्येक परिवार को दस-दस लाख रूपए मुआवज़ा देने का भी आदेश दिया। केवल आरोप और शक के आधार पर किसी का घ...