ज़्यादा बच्चे, घुसपैठिये और मंगलसूत्र



 दूसरे चरण के मतदान के साथ ही लोकसभा चुनावों की यह जंग दिलचस्प दौर में पहुंच गई है। अब तक फीके और एकतरफा मालूम होते चुनावों में जैसे जान पड़ गई हो। विपक्ष जो कहीं दिख नहीं रहा था प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में ज़िक्र कर उसे लड़ाई में ला दिया है। मुद्दों के बिना बहस क्या, बहस के बिना लोकतंत्र क्या और लोकतंत्र के बिना चुनाव के मायने क्या। मोटे तौर पर अब कोई मुद्दा बड़ा इसलिए बन गया है क्योंकि प्रधानमंत्री ने उसे उठा दिया है। वे कह रहे हैं कि कांग्रेस आपकी संपत्ति छीन कर आपका मंगलसूत्र भी उतार लेगी। यह नरेंद्र मोदी की खूबी है कि मुद्दे को अपनी तरफ मोड़ने के लिए ऐसा वाक्य विन्यास रचते हैं कि जनता के दिल में उतर जाता है। पीएम का कहना कि ज़्यादा बच्चों वालों को आपकी जमापूंजी बांट दी जाएगी से भी ज़्यादा  मंगलसूत्र आम जनता को कनेक्ट करता है। एक वर्ग को घुसपैठियों और ज़्यादा बच्चों वाला कह देना और कांग्रेस आपकी संपत्ति हड़पकर इन्हें दे देगी वाला भाषण राजस्थान के आदिवासी बहुल क्षेत्र बांसवाड़ा में कोई मायने नहीं रखता लेकिन मुद्दा चैनलों को रात नौ बजे के लिए मिला बढ़िया अस्लहा था । अब इससे हुआ यह कि जिस घोषणा-पत्र को कोई पूछता भी नहीं था, उसे लोग ढूंढ रहे हैं, जानना चाह रहे हैं कि आखिर किसकी पूंजी किसको दी जा रही है। 'जितनी आबादी उतना हक़' चर्चा में आ गया है।  प्रियंका गांधी का पलटवार तो मीडिया में भी जगह पा गया कि मेरी माँ का मंगलसूत्र इस देश पर कुर्बान हुआ है और मेरी दादी ने युद्ध के समय अपना सोना देश को दिया था। यूं भी भाई की तुलना में बहन ज़्यादा सहज वक्ता मालूम है लेकिन फिलहाल राहुल गांधी भी जोश में दिखाई देते हैं। एक कार्यक्रम में वे पूछते हैं - "कैसा मैनिफेस्टो है हमारा,पीएम पैनिक कर गए हैं ,हिल गए हैं। " दरअसल इस चुनाव को इसी द्वन्द की ज़रुरत थी वर्ना लोग कहने लगे थे कि अब कुछ नहीं, अब तो  राम आ गए हैं। वही नैया पार लगा देंगे। इस लिहाज़ से यह अभूतपूर्व चुनाव बन गया है कि सत्तापक्ष को बड़ी चुनौती देने के लिए हाशिये पर पड़े समूह को एक किया जा रहा है, तब क्या इस समूह के लिए सत्ता उदासीन रही ?

नहीं ऐसा भी नहीं है। लाभार्थियों का बड़ा वर्ग तैयार हुआ है। आवास ,ऋण, पेंशन, राशन मिला है लोगों को। विकास भी नज़र आया है । हवाई अड्डे बंदरगाहों, राजमार्गों पर लेकिन यह सब कुछ ऐसा है जैसे किसी नगर के  राजमहल चकाचौंधी में नहाए हुए हों, भीतर नाना तरह के पकवान परोसे जा रहे हों और जनता उस रौशनी को टुकुर टुकुर देख रही हो। उस रौशनी में उसका कोई योगदान नहीं उसका कोई लाभ नहीं। यह हताशा उस पर हावी है कि वह कब हिस्सेदार होगा ? निस्संदेह राम मंदिर उसके लिए भी गौरव की बात है लेकिन उसे ज़िन्दगी आसान भी  करनी है। बहुसंख्यक आबादी अपनी मूलभूत तकलीफों के हल के साथ   विकसित भारत बनाने  में अपनी भागीदारी भी चाहती है। अच्छी बात है कि पक्ष-विपक्ष ने मिल कर अब एक मुद्दा बनाया है। सवाल यह है कि कांग्रेस मैनिफेस्टो में बताया गया पैसा आएगा कहाँ से ? राहुल गांधी कहते हैं कि हमने हिसाब लगाया है जो पैसा बैंकों के ज़रिये अमीरों की क़र्ज़ माफी के लिए लूटा गया है वही हम गरीबों को देंगे। इसके लिए एक एक्स-रे की ज़रुरत भी वे बताते हैंऔर हिसाब बहुत साफ़ है और इसमें कोई मुश्किल नहीं है। इधर प्रधानमंत्री ने एक्स-रे को राडार पर लेते  हुए गुरूवार को मुरैना में हुई रैली में कहा -"ये शाही परिवार के शहजादे अब बढ़ -चढ़ कर कह रहे हैं अब आपकी संपत्ति का एक्स-रे होगा एक्स-रे। आपकी अलमारी में क्या पड़ा है। किसी माता -बहन ने कुछ बचा ,अनाज के डिब्बे में रख लिया है तो एक्स-रे कर के खोजा जाएगा ,लॉकर में पड़ा है एक्स-रे कर के खोजा जाएगा, हमारी माताओं बहनों के पास जो स्त्री धन होता है बहुत पवित्र होता है कोई उसको हाथ नहीं लगाता है कोई छूता नहीं है मंगलसूत्र या छोटा -मोटा गहना हो इसे पवित्र माना जाता है। कांग्रेस उसे जब्त करके, अपनी  वोटबैंक मज़बूत करने के लिए उसे बाँटने की सार्वजनिक घोषणा कररही है ,मैनिफेस्टो में बता रही है। " एक बार फिर कांग्रेस के घोषणा पत्र का ज़िक्र। वैसे देश की स्त्रीयां उस समय अपने डिब्बों में रखे नोटों को लेकर बैंकों की कतारों में लग चुकी हैं , जब नोटबंदी की गई थी मानो वह उनका कोई स्त्रीधन नहीं, कालाधन हो। 

 जिन्हें प्रधानमंत्री शहज़ादा कह रहे हैं वे भी पलटवार करते हैं। वे कहते हैं -" दस साल तक आप ओबीसी रहे और जब देश में ओबीसी का सवाल उठा तब आप ने कहा कि इस देश में दो ही जातियां हैं अमीर और गरीब। " कॉर्पोरटे लूट के तहत पिछले दस सालों में 16 लाख करोड़ माफ़ किया गया। भारत में अमीर और गरीब के बीच बड़ी खाई है। ऑक्सफेम इंटरनेशनल की वार्षिक असमानता रिपोर्ट कहती है 2022 में देश की 40 प्रतिशत संपत्ति देश के केवल एक फीसदी लोगों के पास हो गई है जबकि साल 2000 में यह 33 फीसदी थी। कोरोना काल में जब लॉकडाउन में लोगों के काम धंधे बंद हुए अमीरों की संपत्ति और बढ़ी। अरबपतियों की संख्या भी 102 से बढ़कर 166 हो गई। अंतर्राष्ट्रीय स्तर के एयरपोर्ट ,हाईवे में पूंजी का निवेश तो दिखाई देता है लेकिन उसके अनुपात में रोज़गार सृजित नहीं हो पा रहे। भारत की जीडीपी बढ़ी है लेकिन मानव विकास सूचकांक में देश बीते 34 वर्षों से वहीं है। हम 134 देशों में 111वें नंबर पर हैं।असंगठित क्षेत्रों में काम करने वालों की तादाद बढ़ी है जिनके पास कोई आर्थिक सुरक्षा नहीं ,भविष्य नहीं। उन्हें ना केवल चुनावों में सम्बोधित किया जाना चाहिए बल्कि विकसित भारत का लक्ष्य उनके साथ हासिल किया जाना चाहिए। 

 प्रधानमंत्री ने रविवार को राजस्थान के बांसवाड़ा में घुसपैठिये ,ज़्यादा बच्चे की बात कही, फिर अगले ही दिन अलीगढ में पसमांदा मुसलमानों को सम्बोधित करते हुए तीन तलाक और हज कोटा को बढ़ाने का श्रेय भी लिया। इस बीच एक न्यूज़ एजेंसी को दिए साक्षात्कार में यह भी कहा -"भारत एक बहुरत्न वसुंधरा है।" कितना खूबसूरत वाक्य है यह। अब यह इतने विविध बयान एक ही व्यक्ति के  हैरान कर सकते हैं। सच तो यह है कि हमारा देश ही विविधताओं वाला है लेकिन भाषा की गरिमा हर  ज़र्रा चाहता है। क्या यह उनके मतदाताओं में विश्वास का संकट नहीं पैदा करेगा ? उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लिए कहा -"पहले जब उनकी सरकार थी,उन्होंने (मनमोहन सिंह) कहा था कि देश की संपत्ति पर पहला अधिकार मुसलमानों का है। ये संपत्ति इकट्ठी कर के किसको बाटेंगे? जिनके ज़्यादा बच्चे होंगे ,उनको बाटेंगे ,घुसपैठियों को बाटेंगे। क्या अपनी मेहनत की कमाई का पैसा घुसपैठियों को दिया जाएगा ? आपको मंज़ूर है ये ?" जबकि पूर्व प्रधामंत्री मनमोहन सिंह ने साल 2006 में कहा था, "अनुसूचित जातियों और जनजातियों को पुनर्जीवित करने की ज़रूरत है. हमें नई योजनाएं लाकर ये सुनिश्चित करना होगा कि अल्पसंख्यकों का और ख़ासकर मुसलमानों का भी उत्थान हो सके, विकास का फायदा मिल सके. इन सभी का संसाधनों पर पहला दावा होना चाहिए."


क्या यह विभाजन की राजनीति नहीं कही जाएगी ? क्या ये भाषण केवल तात्कालीन राजनीतिक लाभ कहकर भुला दिए जाएंगे या देश के भविष्य पर भी इसका असर होगा ? बंटवारे की इस सियासत  ने भला कब किस मुल्क का भला किया है। जो देश महान बने वे वही हैं जिन्होंने नफरत की राजनीति ,बंटवारे की राजनीति को ख़त्म किया। अगर सरकार का दावा है कि बीते सत्तर सालों में यही हुआ तो बीते दस साल भी उससे अलग नहीं हैं। बस अब तराजू के पलड़े बदल  गए हैं। प्रधानमंत्री  पद को लोग अपने कद को ऊंचा कर के देखते हैं। लोकप्रियता तो भाषा की शुचिता और वाणी को और मधुर बनाती है फिर शिखर पर यह लड़खड़ाहट क्यों? राजस्थान में ही एक बार उन्होंने सोनिया गाँधी को कांग्रेस की विधवा कहा था। विधानसभा चुनाव भी भारतीय जनता पार्टी ने उदयपुर में  कन्हैया लाल की हत्या को बड़ा मुद्दा बनाते हुए लड़ा था। शायद उन्हें  लगता है कि इस बंटवारे से लाभ मिलता है।यद लेकिन फिलहाल ऐसा दस साल में नहीं हुआ कि कोई घोषणा -पत्र चर्चा में आया हो। कांग्रेस ने अपने पारम्परिक सियासत छोड़ समाजवादी और कम्युनिस्टों को मिलाकर  मैनिफेस्टो जनता के सामने रख दिया है तो प्रधानमंत्री ने अपने ही अंदाज़ में इस एक्स रे को देख सर्जरी करना शुरू कर दया है। इन चुनावों में नए चटख रंग भर गए हैं। नया यह है कि चुनाव आयोग ने दोनों ही दलों के पार्टी अध्यक्षों को  (उनके आकाओं को नहीं) आचार संहिता के उल्लंघन के नोटिस  भेज दिए हैं। 



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