फ्रांस की ये गारंटी अद्वितीय है


फ्रांस दुनिया का ऐसा पहला और अकेला देश बना गया है जहाँ गर्भपात का अधिकार संवैधानिक अधिकार हो गया है। 4 मार्च को आए इस ऐतिहासिक कानूनी संशोधन के बाद जहां राजधानी पेरिस में  महिलाओं ने  एफ़िल टॉवर पर चढ़कर ख़ुशी का इज़हार किया वहीं पूरी दुनिया कुछ हैरत में ही रही।ऐसा इसलिए भी कि  मनुष्य की आज़ादी और निजता को संबसे ज़्यादा तवज्जो देने वाला देश समझे जाने वाले अमेरिका ने खुद बीते वर्ष जून में महिलाओं के इस अधिकार को कम कर दिया था। वह वाकई कुछ दकियानूसी रवैया अपनाते हुए पीछे चला गया । फ्रांस ने बता दिया  है कि फ्रेंच रेवोलुशन के बाद से जो मानव अधिकारों की दिशा में  सुधार का जिम्मा उन्होंने लिया वह लगातार बढ़ता ही जा रहा है। उसकी सोच में लिंग को लेकर कोई भेद नहीं। कुछ लोग कह रहे हैं कि यह वहां के राष्ट्रपति ने अपनी घटती लोकप्रियता को बढ़ाने के लिए ऐसा काम कर दिया है जिसे विरोधियों को भी सराहना पड़ रहा है। भारत के बारे में कहा जाए तो गर्भपात कानून को लेकर फ्रांस भले ही ना हो लेकिन अमेरिका से कहीं आगे है। 

मार्च की 4 तारीख़ को फ्रांस के कानूनविदों ने महिलाओं के गर्भपात के अधिकार को संविधान में प्रतिष्ठापित कर दिया। इस ऐतिहासिक बिल को फ्रांस के राष्ट्रपति एम्मनुएल मैक्रो ने प्रस्तावित किया जिसे 72 के मुकाबले 780 मतों का समर्थन मिला और वहां का सदन बड़ी देर तक खड़े होकर करतल ध्वनि यानी तालियां बजाकर करता रहा। यूं फ्रांस में 1975 से गर्भपात कानून हैं। अबकी बार फ्रांस ने तत्कालीन युगोस्लाविया से भी आगे कदम बढ़ा दिया है जहां की सरकार ने 1974 में ही हर महिला को गर्भपात का अधिकार देते हुए कहा था कि बच्चे चाहना या ना चाहना इंसान का  व्यक्तिगत  चुनाव है लेकिन फ्रांस ने इसकी संवैधानिक गारंटी नागरिक को दे दी है। वैसे ही जैसे जीने की, रोज़गार की, अपनी आस्था को कायम रखने की गारंटी हमारा संविधान हमें देता है। 

अच्छी बात यह है कि बीते साल ही सुप्रीम कोर्ट ने छह माह यानी 24 सप्ताह के गर्भ को समाप्त करने की कानूनन वैध करार दे दिया है। यह वह समय है जब  चिकत्सक बच्चे की गंभीर बीमारी को गर्भ में ही देख लेते हैं ,मां उसे पैदा करने या ना करने का अधिकार रखती है। एक ओर जहां अमेरिका जैसा आधुनिक देश  ने महिलाओं को दिए  गर्भपात के  अधिकार वापस ले लिए हैं , भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने गर्भपात के फैसले पर स्त्री को हक देकर उसके सशक्तिकरण की दिशा में सहज ही बड़ा कदम बढ़ा दिया है। यह और बात है कि कुछ लोगों ने जो ना स्त्री के शरीर से वाकिफ हैं और ना उसकी भावनाओं से, न्यायालय की व्याख्या को मनमौजी व्याख्या भी कहा था लेकिन भारतीय स्त्री को यह महत्वपूर्ण हक़ हासिल है। यहां यह समझना भी ज़रूरी है कि भारतीय संविधान मानव अधिकारों को  सर्वोपरि मानता है बिना किसी लिंगभेद के।  साथ ही यह उस संस्कृति का भी प्रतिनिधित्व करता है जहां  संतान की पहचान उसकी जन्मदात्री से होती है। कौशल्या सुत , देवकीनंदन, कुंती पुत्र की परंपरा के देश में स्त्री की देह पर स्त्री के अधिकार को रेखांकित  करनेवाला महत्वपूर्ण फैसला पिछले साल  सुप्रीम कोर्ट ने दिया था । इसके तहत हर स्त्री को यह अधिकार होगा कि वह अपनी मर्जी से 24 हफ्ते के गर्भ पर फैसला ले सकती है फिर चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित। उसका वैवाहिक दर्जा भी यहां कोई मायने नहीं रखता। इस समय में जब स्त्रियां अपने एग फ्रीज करवा रही हैं तब वह किसी भी समय मां  बनने का फैसला भी ले सकती हैं। 

फ्रांस पर लौटते हैं। आज जो इतिहास इस देश में लिखा गया है उसके पीछे एक लेखिका ऐनी एर्नोक्स की भी भूमिका है।  फ़्रांसिसी लेखिका ऐनी एर्नोक्स को साल 2022 में साहित्य का नोबल दिया गया था। वे इतनी साहसी रहीं  कि  जिन अनुभव से अपनी ज़िन्दगी में गुजरीं , उसे ही कलमबद्ध किया। उसका नतीजा ये हुआ कि सरकार और समाज दोनों को गर्भपात के प्रति  अपना नजरिया बदलना पड़ा । ऐनी एर्नोक्स ने लिखा कि युवावस्था में की गई भूल को समाज कभी माफ़ नहीं करता ,और तो और सरकारें भी समाज के ही साथ खड़ी हो जाती हैं। 1963 में जब फ्रांस में गर्भपात गैरकानूनी था एक 23 साल की एक लड़की बिना शादी के गर्भवती हो जाती है और जो त्रासदी वह भुगतती है ,उसके  ब्योरे अपनी डायरी में लिखती जाती है और फिर एक दिन बेबाकी से लोगों को पढ़ने के लिए दे भी देती है। यही डायरी का साहित्य ऐनी का नोबेल है। इतना प्रभावी  कि किताब के छपने के दो साल के भीतर फ्रांस में गर्भपात को लेकर नया कानून बन गया।  किताब जो 1974 में लिखी गई थी उसकी नायिका गर्भपात को लेकर सामाजिक मान्यता और व्यक्तिगत अहसासों के बीच झूझ और झूल रही थी। समाज में हमेशा संस्कारों के कसीदे ही पढ़े जाते हैं बगैर इस बात को समझे कि कई बार उसके ये कसीदे ज़िंदा इंसान के लिए कितने उलझे हुए और दर्द भरे होते हैं। उधर अमरिका जैसे आधुनिक देश के 14 राज्यों ने जून 2022 से अबॉर्शन पर पूरी तरह से रोक लगा दी है जिससे कई तरह की नई समस्याएं आ गई हैं। एक रिपोर्ट के हिसाब से वहां 64 हज़ार से ज्यादा लड़कियां गर्भवती हो गई हैं। अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन में प्रकशित इस रिपोर्ट में कहा गया है कि इन राज्यों  में दुष्कर्म   की शिकार गर्भवती लड़कियों को भी अबॉर्शन की अनुमति नहीं है। इसके पहले 1973 में रो बनाम वेड मामले की सुनवाई में  अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने महिला के निजता के अधिकार को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए सभी राज्यों में गर्भपात को सही ठहराया था। 

हमारे सुप्रीम कोर्ट ने भी आगे ही  देखा है। जस्टिस डी वाय चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय पीठ ने कहा था कि इस कानून में वैवाहिक दुष्कर्म यानी मैरिटल रेप को भी शामिल माना जाना चाहिए। पीठ का यह भी कहना था कि कानून के उद्देश्य को देखते हुए विवाहित और अविवाहित का यह  फर्क बहुत ही कृत्रिम हो जाता है और इसे संवैधानिक रूप से कायम नहीं रखा जा सकता। यह उस रूढ़िवादिता को भी कायम रखना होगा कि केवल विवाहित महिलाएं ही यौन संबंधों में होती हैं। बहरहाल एक अच्छा लोकतंत्र वही है जो अपने नागरिकों के प्रताड़ित होने और चीखने से पहले ही उसे वे अधिकार दे जो गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए ज़रूरी होते हैं। मसला केवल  प्रेमपूर्वक  जारी वैवाहिक  रिश्तों का नहीं बल्कि नाबालिग बच्चियों के साथ बलात्कार के बाद गर्भवती होने और फिर गर्भपात से भी जुड़ा है। 


इन दिनों राजस्थान में जयपुर  हाईकोर्ट के सामने  एक नाबालिग बच्ची का मामला आया है। जयपुर की  एक 11 साल की बच्ची ने अपने 31 माह के गर्भ को  समाप्त करने की  याचिका दाखिल की है। यह गर्भ उसके साथ हुए दुष्कर्म का नतीजा है। अदालत ने साफ किया कि संविधान के आर्टिकल 21 के तहत पूर्ण विकसित भ्रूण को भी दुनिया में आने और स्वस्थ जीवन जीने का अधिकार है।  बच्ची की  मां मानसिक तौर पर बीमार है और पिता किसी आपराधिक मामले में आरोपी हैं।  ऐसे में अदालत ने बच्ची के सुरक्षित प्रसव कराने के निर्देश प्रशासन और अस्पताल को दिए हैं।  इस मामले में गर्भपात बच्ची की जान के लिए खतरा हो सकता था। समाज की यह स्याह हकीकत है कि बच्चा केवल दाम्पत्य का नतीजा नहीं कई बार दुर्घटनाओं और अपराध का परिणाम भी होता है।  शायद इसीलिए सुरक्षित और लीगल एबॉर्शन की सोच ने भी जन्म लिया।  ज़िन्दगी बहुत कीमती है अजन्मे की भी लेकिन यह हक एक वयस्क महिला को मिलना ही चाहिए कि वह अपनी ज़िन्दगी के साथ क्या चाहती है। स्वतंत्रता खुद में जीवन की सुगंध है जिसे भी समझने में दिक्कत हो वह खुद के शरीर पर नौ महीने तक एक पत्थर बांध कर जी के देख सकता है। फ्रांस ने इस बोझ को बहुत हलका कर दिया है और पूरी दुनिया के सामने नज़ीर रख दी है। वहां के प्रधानमंत्री गेब्रियल अटल ने कहा -हमें इतिहास बदलने का मौका मिला है। 


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