आज़ाद वतन में क्यों उजड़ रहे गुलशन


क्या बीते दस बरसों में आपकी किसी मित्र या परिजन से कोई बहस नहीं हुई ? कभी ऐसा नहीं हुआ कि आप उलझ पड़े हों सियासी मुद्दों पर और फिर साम्प्रदायिक टसल की तंग गलियों में जकड़ गए हों ? कभी ऐसा नहीं लगा कि जिससे बहस हो रही है वह पहले कुछ और था अब कुछ और है? आखिर मेरी समझ में यह तब क्यों नहीं आया ?अगर जो ऐसा आपके साथ नहीं हुआ है तब आज की तारीख़ में आप सबसे खुशनसीब व्यक्ति हैं। आपकी सदाशयता का स्तर सर्वोत्तम है और हर हिंदुस्तानी जिस दिन ऐसा हो जाएगा, ज़हर फैलानी वाली ताकतें खुद-ब-खुद परास्त हो जाएंगी। अभी तो लगता है जैसे हर शख्स कोई ज़िंदा बम है जिसे बस एक चिंगारी तबाह करने के लिए काफ़ी है। दुनिया दुसरे विश्वयुद्ध में  बम गिराने को लेकर बहस कर रही है और हम खुद बम बन रहे हैं। हम जो यूं तब्दील हुए हैं यह सब यकायक नहीं हुआ। पूरी एक सदी की एक्सरसाइज है । अब जो नया हुआ है वह उन्मादियों को सरंक्षण देने का काम  है। अब व्यवस्था इनसे हमदर्दी रखने लगी है। मणिपुर, नूंह और जयपुर-मुंबई ट्रैन में जो हुआ और हो रहा है वह हमारे ज़िंदा बम होने की दुखद दास्तानें हैं। तब क्या इस दशा में उम्मीद इन नेताओं से की जाए जो खुद को पक्ष और विपक्ष कहते हैं और एक जगह घटना होने पर दूसरी का नाम लेकर तुलना करने लगते हैं ? क्या भारत की आज़ादी हासिल करने वाला यह सुन्दर महीना ऐसी मनहूस बातों पर बात करते हुए बीतेगा। क्या कोई उम्मीद नहीं इस सूरत ए हाल के बदलने की जिसमें लोग एक दूसरे के खून के प्यासे ना होकर बस गले लग जाएं ? उम्मीद है।

एक पुरानी फिल्म मुझे जीने दो (1963) में मोहम्मद रफ़ी का गाया और साहिर लुधियानवी का लिखा एक गीत है -अब कोई गुलशन न उजड़े, अब वतन आज़ाद है..इस उम्मीद को पूरा करने में  हम बुरी तरह नाकाम रहे हैं। गीत की अगली पंक्ति है रूह गंगा की हिमालय का बदन  अब आज़ाद है.. क्या वाकई  की रूह का आज़ादी से कोई नाता अब बचा है । रोटी की जुगाड़ में वह आज भी मारा मारा फिर रहा है। काम चाहता है, पर काम नहीं। कड़ी मेहनत के बाद जो दो पैसे मिल रहे वह कभी पूरे नहीं पड़ते और फांके का पेट अपमान से भरना पड़ रहा है। बेरोज़गारी और बेहिसाब मंहगाई से जूझता  इंसान इतना त्रस्त है कि वह भीतर से खाली हो रहा है। उसे उकसाना सबसे आसान है। और जब उसे यह बताने वाले सब जगह मौजूद हैं  कि इस तकलीफ़ का 'फाइनल सोल्युशन ' क्या है तब वह क्यों न यकीन करेगा इस साजिश पर ,उसे तो हर हाल में अपनी तकलीफ़ से मुक्ति चाहिए। तथ्य यही है कि भारत के एक फीसदी अमीरों का, देश की चालीस फ़ीसदी समृद्धि पर कब्ज़ा है  और पचास प्रतिशत के पास केवल तीन फ़ीसदी संसाधन हैं । ऐसे में बारूद भरना कौन सा मुश्किल काम है।

हाल ही में अनुभव सिन्हा ने अफ़वाह नाम की बढ़िया फिल्म बनाई है। भीड़ जिस ट्रक को गौमाता का समझ पीछा करती है उसमें से गधे बाहर आते हैं।इस नए ज़माने में अब खुद को गौ सरंक्षक बताने वाला विडिओ भेजकर चुनौती देता है ,उकसाता है और फिर ब्रज और शांतिप्रिय मेवात अंचल से लगे हरियाणा के नूंह में भड़की हिंसा कई लोगों की जान ले लेती है। व्यवस्था इन दंगों को किसी साज़िश का नतीजा बताकर मुंह पर चादर लपेट कर सो जाती है। ये दंगाई कई सालों से कभी लोगों के फ्रिज में गौमांस ढूंढते हैं तो कभी जानवरों से भरी गाड़ियों को कसाई खाने ले जाई जा रही बताकर भीड़ का हमला करा देते हैं। चालक को मार देते हैं। ये बम बन चुके लोग  2017 से ट्रैन में भी चढ़ रहे हैं। तब सत्रह साल के एक बच्चे जुनैद को ट्रैन में सीट साझा करने के विवाद में मार दिया गया था। अब ये बम वर्दी में भी होते हैं। ये यात्रियों की  रक्षा के लिए दी गई  बन्दूक का इस्तेमाल उन्हें ही मौत के घाट उतारने में कर रहे हैं। देशवासियों में ऐसा डर बैठ गया है कि वे अब ट्रैन  यात्रा से डरने लगे हैं। 

तब क्या कोई उम्मीद नहीं? मणिपुर में जातीय हिंसा , नूंह और ट्रैन में हत्याएं  होती रहेंगी ? महावीर ,बुद्ध और गांधी का यह देश इसी तरह खून से सना रहेगा? कभी अंग्रेज़ों के आगे अपने बलिदान का लहू बहाने वाले देश में अब बेवजह बेहगुनाहों का खून बहता रहेगा ? क्या हुक्मरान इस खून को अपने वोटों की फसल के लिए खाद की तरह देख रहा है और जो नहीं तो फिर खुलेआम नरसंहार की बात करने वाले क्यों आज़ाद घूम रहे हैं? क्यों धार्मिक जुलूसों को वही रास्ता चुनना है जहाँ दंगा भड़क सकता है और क्यों पुलिस उन्हें यह अनुमति भी देती है ? उम्मीद की किरण उत्तरप्रदेश के बरेली से आती दिखाई देती है जहाँ के पुलिस कमिश्नर प्रभाकर चौधरी ने कावंड़ियों की उस ज़िद को नहीं माना जिसमें वे अपना निर्धारित रास्ता बदलना चाहते थे। नतीजतन, चंद घंटों में  प्रभाकर का तबादला कर दिया गया। 2010 बैच के इन आईपीएस अधिकारी का अब तक इक्कीस बार तबादला  हो चुका  है। अधिकारी जिसकी वजह से बवाल होने से बच गया उसे सम्मान की जगह ट्रांसफर मिलता है। तरह साल की सेवा में 21 तबादले झेल चुके इन अधिकारी के पिता का साफ़ कहना है -" उनका बेटा बेहद ईमानदार ऑफिसर है और नेताओं से ज़रूरी दूरी बनाए रखता है। इसी का नतीजा है कि बार-बार उसका तबादला कर दिया जाता है।" उम्मीद से भरी टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट की है। मणिपुर की हिंसा को लेकर भी न्यायाधीश ने पूछा है कि कितने  लोग ग़िरफ़्तार हुए, कितनी एफआईआर दर्ज़ हुई और क्या बीते तीन  महीनों में हालात ऐसे थे कि कानून व्यवस्था पूरी तरह समाप्त हो चुकी थी। सर्वोच्च न्यायलय ने वह किया है जो सरकार या फिर केंद्र सरकार को करना चाहिए था। सुप्रीम कोर्ट ने मणिपुर के डीजीपी को जानकारी देने के लिए हाज़िर होने के लिए कहा है। जब कोर्ट को जनता के लिए अधिकारी को यूं तलब करना पड़े ,यह तो वही परिस्थिति है कि कार्यपालिका अपने कर्तव्य में अक्षम रही है। यही नहीं सुप्रीम कोर्ट ने नूंह की घटना को लेकर भी तुरंत सुनवाई की और 2022 के उस निर्णय को दोहराते हुए एक्शन लिए जाने की बात कही कि हेट स्पीच पर राज्यों को तुरंत कार्रवाई  करनी चाहिए और स्वतः स्फूर्त एफआईआर दर्ज़ होकर गिरफ्तारियां होनी चाहिए। वाकई किसी भी सरकार को ऐसा करने में क्या हिचक होनी चाहिए लेकिन हिचक है जो अब सबको दिखाई दे रही है। 

एक बात और जो पक्ष-विपक्ष की बहस में उलझेंगे तो नुकसान और ज़्यादा होगा। अभी नूंह से गरीब मजदूरों का पलायन हो रहा है ,बाद में पूरे देश से होगा। उद्योग चौपट होंगे।आग में सबसे पहले घर बचाना ज़रूरी है। ये नेता लोग सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए कभी भी, किसी भी छतरीके नीचे चले जाते हैं और आप इनके लिए लड़ने-मरने को तैयार रहते हैं। इनमें से कौन राज करेगा यह तो तब होगा न जब हम पहले अपने जलते घर को बचा लें। आचार्य विनोबा भावे ने कहा है -"चार बातें ध्यान में रखने लायक हैं : आज का नारा-जय जगत, हमेशा  का नारा -जय जगत,हमारा नारा -जय जगत ,सबका नारा -जय जगत। आज का कल का परसों नारा यही है। इसी से उद्धार होने वाला है,ऐसा तभी होगा जब सोच में एकरूपता आएगी अन्यथा अनेक कारणों से  दरारें पड़ेंगी ,धर्मभेद,जातिभेद,पंथभेद,भाषाभेद,ऐसे टुकड़े -टुकड़े हो जाएंगे।समाज की गाड़ी यहीं रुकी हुई है। सब एक दुसरे  का हित देखें इसी में सबका कल्याण है। जय जगत तब होगा जब हम सबकी चिंता करेंगे। महात्मा गांधी को गोली मारी गई, क्यों ?क्योंकि वे हिन्दुओं को मुसलमान की चिंता करने के लिए कहते थे,हिन्दुओं को उसमें दुर्बलता लगती थी ,लेकिन गांधीजी को उसमें शक्ति दिखती थी,उदारता  लगती थी। गांधीजी की यह बात कि एक जमात दूसरी जमात के लिए  त्याग करे किसी को मान्य नहीं हुई। "अफ़सोस आज़ादी के अमृतकाल में  भी कहां मान्य हुई हैं। 





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