भीतर देवदासी चलेगी स्त्री नहीं


नए साल की ठंडी सांझ में चंडीगढ़ की सड़क पर जब एक गुरुद्वारा दिखा तो हम सब सर ढककर भीतर हो लिए। गुरुग्रंथ  साहब को प्रणाम कर जब पैसे निकाल कर दानपेटी ढूंढऩी चाही तो एक सेवादारनी ने धीमे लेकिन साफ शब्दों में कहा कि यहां पैसे नहीं चढ़ते। हमने चुपचाप पैसे अंदर रख लिए। यह निषेध था लेकिन मन को बहुत अच्छा लगा। अगर इन्होंने गुरुद्वारे के बाहर ही यह कहकर रोक लिया होता कि आप स्त्री हैं और भीतर नहीं जा सकती तब जाहिर है यह रोक या बैन हमें भीतर तक आहत कर जाता। केरल स्थित विश्व के बड़े तीर्थस्थल  सबरीमाला  अयप्पा मंदिर में यही सब हो रहा है। वहां दस से पचास वर्ष की महिला का भीतर जाना वर्जित है। उनके तर्क  हैं कि ये अवतार ब्रह्मचर्य का है और मासिक धर्म एक अपवित्र प्रक्रिया है। हमारे यहां किचन में भी उन दिनों स्त्री का जाना वर्जित है । उनका तीसरा तर्क है कि महिलाओं का इतनी लंबी और जंगल से होने वाली परिक्रमा करना ठीक नहीं है। वे मन ही मन ईश्वर का ध्यान कर सकती हैं। केरल के सबरीमाला में हर साल छह करोड़ यात्री दर्शन के लिए आते हैं और यह नाम उस आदिवासी शबरी के नाम पर है जिनके झूठे बेर राम ने खाए थे। वाकई हैरानी होती है कि  जो मंदिर ही शबरी के नाम पर है वहीँ महिलाओं को जाने की इजाज़त नहीं।
   महिलाओं को प्रवेश नहीं देने का यह विवाद सर्वोच्च न्यायालय में है। याचिका दायर करने वाले वकील का कहना है कि उन्हें धमकियां मिल रही है इसलिए वे केस वापस लेना चाहते हैं लेकिन सुप्रीम कोर्ट का कहना है वकील चाहे तो पीछे हट सकते हैं  सुनवाई जारी रहेगी। महिलाओं को नहीं जाना चाहिए इस मामले में बोर्ड के मुखिया का एक और तर्क है कि जब हम तिरुअनंपुरम के उत्सव पोंगाला में नहीं जाते हैं जहां सिर्फ महिलाएं भाग लेती हैं तब हम तो विरोध नहीं करते। तर्क और भी हैं जब महिलाएं दाह संस्कार जैसे कर्मों से अलग की जा सकती हैं तो यहां क्यों नहीं। वे प्रकृति से कोमल होती हैं इसलिए उन्हें इन कठिन कार्यों से दूर रखा गया लेकिन अब जब ये ही बहादुर स्त्रियां अपने माता पिता या किसी अन्य प्रियजन की चिता को अग्नि देती हैं तो समाज और समाचार पत्र दोनों ही प्रोत्साहित करते हैं। एेसे किसी मामले में कोई न्यायालय का द्वार खटखटाते हुए नहीं मिला।
  बंदे और खुदा के बीच पर्दे की पैरवी करने वाले ये क्यों भूल जाते हैं ना तो स्वयं ईश्वर और ना ही हमारा संविधान किसी भी तरह के भेदभाव का समर्थन करता है। फिर कैसे महाराष्ट्र के  शनि शिंगणापुर मंदिर में एक स्त्री के छूने भर से कोई मूर्ति अपवित्र हो गई। बाद में उस मूर्ति को दूध से धोकर पवित्र किया गया। सालों पुराने हमारे नियमों में तो यह भी शामिल था कि जब भी कोई सात समंदर पार से लौटकर आए (यानी यूरोप और अमेरिका) तो उसकी भी शुद्धि की जाए। हम आज तो एेसा नहीं करते। उल्टे विकास के सारे मानदंड ही अब वहीं से तय हो रहे हैं। हमें मंदिर में देवदासी प्रथा को प्रश्रय देने से कोई ऐतराज नहीं है लेकिन उसके  प्रवेश से है। देवदासी ईश्वरीय सेवा के लिए नियुक्त स्त्रियों के नाम पर पुरुषों के हाथ का खिलौना थीं।
  प्रतिबंध तो हमने दलितों के प्रवेश पर भी लगा रखा था लेकिन आजादी के बाद हमारे संविधान ने उन्हें यह हक लौटाया। बहरहाल आठ साल से सबरीमाला मामला सर्वोच्च न्यायालय में है और अब इसकी सुनवाई हो रही है। उम्मीद की जानी चाहिए कि फैसला सामाजिक व्यवस्था को मजबूत करेगा ना कि लिंग भेद को बढ़ावा दे। एेसा ही एक प्रतिबंध मुंबई की हाजी अली दरगाह पर भी चस्पा है। वहां भी मजार के एक हिस्से में महिलाओं के प्रवेश पर रोक है। मामला मुंबई हाई कोर्ट में है। तर्क यही कि स्त्रियां पुरुष मजार के करीब नहीं हो सकती। लड़ाई जारी है बंदों ने खुदा से ही पर्दा करा दिया है।

टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 28 - 01 - 2016 को चर्चा मंच पर चर्चा -2235 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  2. bilkul sahi likha apne .. hawan ki purnahuti tab tak adhuri mani jati hai jab tak patni sath na ho bhagwan raam ko bhi sone ki murti lekar puja karni padi in mulla pandito apne apne najariye se utpatang niyam bana diye the jise lakir ke fakir ki tarah dhoye ja rahe hai ..

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  3. सही मुद्दा उठाया है आपने।

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