इस लाल से न खेलो होली

डॉ अविजित पत्नी राफिदा  के साथ

लाल रंग के बिना होली का त्योहार अधूरा है। सौभाग्य और समृद्धि का प्रतीक ये रंग इस त्योहार में खुलकर मला जाता है कि कहीं कोई गिले-शिकवे हों तो वे भी दूर हो जाएं, लेकिन दुनिया में इन दिनों जिस रंग की होली खेली जा रही है वह भी लाल है। ये लहू की होली है। मार दो, कत्ल कर दो ये नृशंस शब्द हर तरफ से सुनाई दे रहे हैं। पेरिस में शार्ली एब्दो के कार्टूनिस्ट्स की हत्या के बाद अब बीते गुरुवार एक ब्लॉगर की ढाका में हत्या कर दी गई। डॉ अविजित रॉय (44) अपनी पत्नी राफिदा अहमद के साथ ढाका में एक पुस्तक मेले से लौट रहे थे। पत्नी भी गंभीर रूप से जख्मी हैं। सात किताबों के लेखक रॉय बांग्लादेशी मूल के अमेरिकी नागरिक और इंजीनियर हैं और कुछ दिनों पहले ही ढाका लौटे थे। रॉय अपने ब्लॉग 'मुक्तो मोन' में ना केवल मज़हब  को वैज्ञानिक कसौटी पर कसते बल्कि कट्टरपंथियों पर प्रहार भी करते। यही उन्हें रास नहीं आया। उनके पिता डॉ अजय रॉय कॉलेज के व्याख्याता और एक्टिविस्ट हैं। उन्हें अपने पुत्र को लेकर चिंता थी क्योंकि उन्हें मिलने वाली धमकियों में यकायक  इजाफा हो गया था। ढाका में इससे पहले बांग्ला के स्कॉलर, लेखक  और एक्टिविस्ट प्रोफेसर हुंमायू आजाद (2004) और ब्लॉगर रजब हैदर (2013) की भी ऐसे ही हत्या कर दी गई थी। अब तक इनके हत्यारे कानून की पहुँच से बाहार हैं
। 
     समझ में आता है कि क्यों बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन अपनी जान बचाते हुऐ मुल्क दर मुल्क भागती फिरती हैं। मलाला यूसुफजई को पाकिस्तानी स्वात घाटी में हमलेे के बाद ब्रिटेन की शरण लेनी पड़ती है। अफगानिस्तान में लेखिका सुष्मिता बनर्जी (49) की सितंबर 2013 में हत्या कर दी जाती है। सुष्मिता  ने काबुलीवाला की बंगाली बहू के नाम से लिखी किताब में तालिबानियों के अत्याचारों का जिक्र किया था। वे पति जांबाज खान से कोलकाता में मिलीं और शादी के बाद अफगानिस्तान आ गईं। वे वहां महिलाओं की सेहत के लिए काम कर रही थीं। तालिबानियों को यही खटका।
क्या अपराध होता है इनका, ये अपने मन की बात ही तो कह रहे होते हैं। इनके मन की बात दूसरों को गुनाह क्यों लगती है? क्यों उन्हें लगता है कि इन्हें मार दो जुबां बंद हो जाएगी? लेकिन ये जुबाएं तो कत्ल होते ही किसी और को लग जाती हैं। सिलसिला थमता ही नहीं। ये लड़ाई मजहबी बनाम गैर-मजहबी की नहीं बल्कि कट्टर खयाल बनाम आजाद खयाल की है। वे लिखते हैं कि जिंदगी का कीमती तोहफा जो उन्हें नसीब हुआ है वह एक खास चश्मे से देखे जाने के लिए नहीं है। मन की आंखें खुली रखकर महसूस किए जाने के लिए है।
एक फेसबुक मित्र को जानती हूं। वह भी अपने खुले मन से जो महसूस करती हैं लिख डालती हैं। उन्होंने अविजित की मौत पर चरमपंथियों के लिए लिखा, बेहतर है हम तुम पर थूक कर तुम्हारे मजहब से ही तौबा कर लें और नास्तिकता को अपना लें। वही नास्तिकता जिसकी कीमत अविजित रॉय ने अपनी जान देकर चुकाई। एक अन्य स्टेटस में वे लिखती हैं दस सालों तक सरस्वती वंदना गाते हुए कभी ना मुझे और ना मेरे घरवालों को एतराज हुआ तो ईसाई मिशनरी स्कूलों में जीसस के नाम पर प्रेयर करवाए जाने पर आपको दर्द क्यों होता है। उन्हें दोनों तरफ से धमकाने वालों की कतार लगी हुई है। आईडी ब्लॉक कर दी जाती है लेकिन वे  निडर बनी हुई हैं अविजित की तरह।
 फेसबुक, ब्लॉग्स अभिव्यक्ति के महत्वपूर्ण जरिए बने हैं। रॉय ने आखिरी बार गुरुवार शाम सवा पांच बजे अपना फेसबुक खाता अपडेट किया था। उन्होंने लिखा, वाय देअर इज समथिंग रादर देन नथिंग। दरअसरल, ऐसा क्यों नहीं होता कि शब्दों का जवाब शब्दों से ही दिया जाए। क्यों पूरी दुनिया में शब्दों के पैरोकार खून से रंगे जा रहे हैं। जाहिर है इनके पास लफ्जों को समझने की ताकत नहीं है। जीयो और जीने दो का इल्म अभी यहां तक नहीं पहुंचा है। थोड़ी सतर्कता की जरूरत लिखने वालों को भी है। कबीर ने भी किसी को नहीं बख्शा था। ढाई आखर प्रेम के पढ़ाते हुए ही तमाम पाठ पढ़ाए थे। कबीर ने छह सौ साल पहले लिखा
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।

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