केवल पूछने से काम नहीं चलेगा


बेशक, लाल किले की प्राचीर से दिया गया वह भाषण बिना पढ़े, बिना अटके, बिना बुलेट प्रुफ के धाराप्रवाह दिया गया था। बंधेज का लाल-हरा साफा इस भाषण को अतिरिक्त गरिमा प्रदान कर रहा था। जोधपुर के त्रिपोलिया बाजार से ऐसे छह साफे मंगवाए गए थे जिनमें से एक को चुना गया। साथ ही एक कलाकार भी दिल्ली भेजा गया जो साफा बांधने की कला में माहिर था। साफे से जहां राजस्थान का गौरव जगजाहिर था, वहीं राजस्थान का प्रतिनिधित्व सरकार में ना के बराबर होना भी एक बड़ा सवाल। खैर, प्रधानमंत्री के इस भाषण को स्तंभकार 
शोभा डे ने सिंघम की दहाड़ का नाम दिया, जिसमें सब कुछ हिन्दी फिल्मों की तरह लाउड-सा था। संवाद, एक्शन, प्रेम सभी कुछ जरूरत से ज्यादा। किसी ने कहा लगातार बढ़ते दुष्कर्मों के सन्दर्भ में यह राजनैतिक प्रतिबद्धता  का मामला न होकर  सोशल इंजीनियरिंग का पार्ट था, जिसमें प्रधानमंत्री समाज के बदलने की बात कर रहे थे, जबकि अपने चुनावी भाषणों में उन्होंने देश के तमाम हालात के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराया था। उन्होंने दावा किया था कि एक सशक्त सरकार और व्यक्ति के आते ही सबकुछ बदल जाएगा।
प्रधान सेवक (उन्होंने खुद को यही नाम दिया है) ने कहा कि अभिभावक बेटों से भी यह सवाल करें, कि वह कहां था, किसके साथ था, क्यों गया था? जो दुष्कर्म करते है, वे भी तो किसी न किसी के बेटे है। सच है लड़कों पर सख्ती होनी चाहिए। लेकिन क्या समस्या इतने भर से हल हो सकती है। बरसों-बरस तक इस देश में निम्न जातियों का शोषण होता रहा लेकिन क्या महज सामाजिक संदेशों से इन जातियों का उत्थान संभव था। गांधीजी के अथक प्रयास जरूर नई चेतना का संचार कर रहे थे लेकिन बराबरी के मौके ना दिए बिना हालात उतने नहीं बदले जा सकते थे, जितने आज बदले 
हैं । जहां तक दुष्कर्म की बात है, जब तक कानून सख्त कार्रवाई  की वकालत नहीं करेगा ये गुनाह बढ़ते रहेंगे। इतवार को ही उत्तरप्रदेश के फैजाबाद में फिर एक लड़की को दुष्कर्म के बाद सड़क पर फेंक दिया गया। दिल्ली की निर्भया, लखनऊ   की   कृष्णा के बाद ,एक और जघन्य हादसा। 

 स्त्री सिर्फ इस्तेमाल की जाने वाली वस्तु है, यह सोच केवल इतने से नहीं बदलेगी कि मां  अपने बेटे से पूछ ले कि तू कहां था? यह एक कारण हो सकता है, एकमात्र नहीं।
दुष्कर्म, हत्या, भ्रूण हत्या, दहेज हत्या जैसी समस्याओं के लिए क्या किसी सख्त कानून की जरूरत नहीं है? समाज तो अपने हिसाब से चलता है। राजे-रजवाड़ों के दौर में भी चलता था, लेकिन प्रजातंत्र का कर्त्तव्य 
 है कि कायदे से नहीं चलने वाले को दण्डित किया जाए। जिस देश में हर चौबीस घंटे में 93 दुष्कर्म होते हों , वहां केवल सोशल इंजीनियरिंग से काम नहीं चलेगा। एक सख्त संदेश भी जाना चाहिए कि यह 'गुड गवर्नेंस' अपराधियों को बिल्कुल बरदाश्त नहीं करेगी। वादे के साथ इरादा भी हो। 
भ्रू हत्या की बात भी प्रधानमंत्री ने कही। उन्होंने कहा हमारा माथा शर्म से झुक जाता है, जब समाज में ऐसी घटनाएं होती हैं। सच है जब लड़कियों को इज्जत नहीं मिलेगी, कभी दुष्कर्म, कभी दहेज के नाम पर उनकी मौत होती रहेगी तो कौन माता-पिता लड़कियां पैदा करने का साहस करेंगे। प्रति हजार पुरुषों पर 940 स्त्रियों का होना केवल भ्रूण हत्या का नतीजा नहीं है, बल्कि हत्या, दुष्कर्म के बाद हत्या, आत्महत्या और खराब स्वास्थ्य सेवाओं से भी जुड़ा है। ग्रामीण इलाकों में प्रसव मृत्यु दर आज भी सर्वाधिक है। स्त्री वंश चलाने का जरिया भर है। उसका स्वास्थ्य अब भी दोयम  है।
एक महिला के जीवन में बहुत संघर्ष बिंधा है। अगर राष्ट्रमंडलीय खेलों के 64 में से 29 पदक उनके खाते में हैं तो ये उनके अतिरिक्त प्रयास हैं , उसे हर तरह से कानूनन संरक्षण मिलना चाहिए तभी वह दुनिया में भारत का परचम लहरा सकेगी। कब तक वह ऐसी अमानवीय परिस्थितियों से जूझती रहेगी जिसे विकसित दुनिया कब का छोड़ आगे बढ़ गई है। सख्त राजनैतिक प्रतिबद्धता का जिक्र जरूर प्रधान सेवक के मुख से होना चाहिए था, आखिर वे राष्ट्राध्यक्ष हैं।

टिप्पणियाँ

  1. निश्चित रूप से उनका आव्हान प्रभावी और व्यवहारिक था | पर दृढ राजनीतिक इच्छा शक्ति और प्रतिबद्धता के बिना ये समस्याएं हल भी न हो पाएंगीं |यह बात भी विचारणीय है |

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