वह जमादारनी है
सुनीता जमादारनी है। रोज सुबह सात बजे बिल्डिंग का कू ड़ा उठाने आती है और वहां से फिर दस अलग-अलग मोहल्लों के घरों से कूड़ा लेती है। वापसी में उसे तीन बज जाता है। इस काम में उसके पति, देवर, बच्चे सब लगे हुए हैं। रहती वह ठसके से है। साफ, चमकीली, चटख साड़ी पहनती है और सर हमेशा पल्लू से ढका रहता है। जेवर भी खूब पहनती है और होंठ रंगना ·भी नहीं भूलती। वह किसी से ज्यादा बात नहीं करती, जैसे उसे मालूम है कि लोगों को भी कूड़ा ठिकाने लग जाए, उसमें ही दिलचस्पी है। दरवाजा भी नहीं छूती, बस आवाज देती है। पहली तारीख आते ही वह पैसे मांगना नहीं भूलती। उसका देवर भी अच्छे जूते और जीन्स में नजर आ जाता है। पति पर तो सुबह से ही काम का जुनून सवार रहता है। उसी बिल्डिंग में कैलाश सफाई के लिए आते हैं। अपने बेटे-बेटी को स्कूल भेजते हैं। दोनों बच्चे होनहार हैं। अच्छे नंबर आने पर वह बिल्डिंग के लोगों को खूब खुश होकर बताते हैं। वह मोपेड से सफाई के लिए आते हैं। मेहनत के काम को पूरी मेहनत से अंजाम देते हैं।उस दिन सुनीता कुछ भुनभुनाती हुई कूड़ा ले रही थी। उसने बताया कि जब फ्लैट में नए रहने वालों से डेढ़ महीने बाद पैसा मांगा, तो कहते हैं- हम कौन यहां रोज आते हैं। सौ रुपए किस बात के । हम तो खुद ही फेंक देंगे कूड़ा। सुनीता बड़बड़ा रही थी कि हमेशा कचरा बाहर ही पटक देते हैं। कई बार बिल्लियां इनकी 'सब्जी 'को (नॉनवेज को वह सब्जी
कहती हैं) पूरी बालकनी में फैला देती हैं। मैंने उठाया है वह सब। पूरे महीने जाने कैसा-कैसा कचरा उठाते हैं, तब कहीं जाकर दो रोटी नसीब में आती है और ये लोग पैसे देने में ही आना-कानी करते हैं। आधे पैसे दो, पर दो तो सही। सुनीता की आंखों से गुस्सा टपक रहा था।
सुनीता के के लिए इज्जत और भी बढ़ जाती है, क्योंकि एक दिन वह नहीं आए, तो घर बदबू से सड़ांध मारने लगता है और अगर उसका साथ बिल्डिंग साफ करने वाले कैलाश जी भी दे दें , तब तो वह जगह घर की बजाय कूड़ाघर मालूम होती है। बिल्डिंग का कोई रहवासी कभी झाड़ू भी नहीं लगाता .
महात्मा गांधी ने इन्हें हरिजन कहा था। उन्होंने 1932 में हरिजनों की सेवा के लिए हरिजन सेवक संघ की स्थापना की थी। यह मानते हुए कि हरिजन उपेक्षा या अपमान का नहीं, बल्कि सेवा का पात्र है। गांधीजी को मैला उठाने में कोई एतराज न था, ना वे इस काम को वर्ग विशेष से जोड़कर देखते थे। आज के शिक्षित भारत में यह चेतना बढ़ी हो, ऐसा तो कतई नहीं लगता। न तो हम सुनीता के काम का सम्मान कर पा रहे हैं, न उसके मेहनताने को चुकाने की नीयत रखते हैं, ना ही इस वर्ग को हमने घर के भीतर आने की इजाजत दी है। केवल बीस, तीस, पचास या सौ रुपए महीने पर वे इस काम को कर रही हैं , जो इंसान की गरिमा के खिलाफ है। उसके हाथ कचरे से यारी करने पर मजबूर हैं। कोई दस्ताने या मास्क उसकी सहायता के लिए नहीं। हमें जरूरत से ज्यादा खाना खरीदना और फिर कूडे़दान में फेंकना मंजूर है, लेकि न सुनीता को उसका हक देने में तकलीफ है। कई घरों के लोग दिन ढलते ही घर से थोड़ी दूरी पर कूड़ा पटक आते हैं। सुबह जब लोग उस का हिसाब मांगते हैं, तो वे या तो दरवाजा नहीं खोलते या बगलें झांकने लगते हैं। क्यों इन पढ़े-लिखे लोगों को यह समझाने की जरूरत पड़ती है कि इनके चूल्हों को भी आग की जरूरत पड़ती है।
साठ के दशक में डॉ. राम मनोहर लोहिया ने सुझाव दिया था कि मेहतरों का वेतन एक हजार रुपए कर देना चाहिए। धन में बड़ी शक्ति होती है यह ऊंच-नीच के भेद को मिटाने की ताकत रखता है। इस वर्ग की स्थिति अब भी चिंताजनक इसलिए है, क्योंकि समुदाय के रूप में इनके पास काम नहीं है और जहां काम है, वहां आय पर्याप्त नहीं। जाति का दंश तो हमेशा पीछा करता ही है। शेष समाज अब भी उनके मान से कतराता है, बल्कि हेय दृष्टि से देखता है। बात वेतन की है, तो बेशक सड़को पर झाडू़ लगाने वाले, डे्रनेज साफ करने वालों, मृत पशुओं को उठाने वालों का वेतन बढ़ा दिया जाना चाहिए। क्यों नहीं वे इंजीनियर, प्रोफेसर के वेतनमान के समकक्ष हो सकते? इनके नाम पर वोट बटोरने वाले ने भी कभी कोई सार्थक प्रयास नहीं किया। काम को धन यदि बड़ा मुकाम दिला सकता है, तो इस काम का भी सम्मान होना चाहिए। इस असंगठित समूह के पास रोजगार की स्थाई सुविधा तो गायब है ही, तिरस्कार का दंश भी शामिल है। बिल्डिंग का वही परिवार कामवाली बाई की मिन्नतें कर उसे बुलाता है और मुंहमांगा पैसा देता है, लेकीन सुनीता के लिए यह अब भी एक स्वप्न है। हरिजन कहिए या दलित, वर्ण व्यवस्था बनाने वालों ने इनके हिस्से भले ही बेहिसाब संघर्ष लिख दिए हों, लेकीन आज का पढ़ा-लिखा भारतीय भी इसे नहीं समझेगा, तो वह एक अधूरा नागरिक ही होगा।
काम के लिए सम्मान की सोच न जाने क्यों शिक्षित लोगों में भी नहीं है ....तिरस्कार का दर्द क्यों मिले किसी को
जवाब देंहटाएंविचारणीय आलेख। श्रम का सम्मान किसी भी समाज के संतुलित विकास की आवश्यक शर्तों मे से एक है।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन लेख .... हर काम का सम्मान होना चाहिए ...
जवाब देंहटाएंएक बेहद विचारणीय आलेख पर अफसोस इस बात का है कि जिन लोगो को इन के लिए कुछ करना चाहिए ... वो भी कुछ नहीं करते ... अपने वोट बैंक की राजनीति के सिवाए !
जवाब देंहटाएंआमिर खान के शो के बाद भी काफी चर्चा हुई पर हुआ क्या ... कुछ भी नहीं !
dr. monika, anuraagji, sangitaaji aur shivam mishra ji aapka shukriya.
जवाब देंहटाएंवाक़ई आपने बहुत सही लिखा है... हक़ीक़त यही है कि इन लोगों की ज़िन्दगी को बेहतर बनाने के लिए अभी तक ईमानदारी से कोशिश ही नहीं की गई है... सारी ज़िम्मेदारी सरकार पर थोप कर समाज अपनी ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकता है... दरअसल, हम सामाजिक मुद्दों को सियासत से जोड़ कर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं, इसीलिए समस्याओं का समाधान नहीं हो पाता है... आख़िर हमें भी तो अपनी ज़िम्मेदारी समझनी चाहिए...
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