माँ को मिले मारने का हक़ ?

निकिता और हरेश मेहता ने अदालत से गुजारिश की थी कि उन्हें छह माह के गर्भस्थ शिशु को मारने की इजाजत दी जाए क्योंकि उसके दिल में छेद है और वह दुनिया में आकर सामान्य जिंदगी नहीं बसर कर सकता। एक सीधी सपाट राय हो सकती है कि मां को यह हक होना चाहिए लेकिन उस मां का क्या जिसका बच्चा पैदा होते ही मेनेनजाइटिस (दिमागी बुखार) का शिकार हो मानसिक विकलांग हो जाता है? वह मां जिसका बच्चा अस्पताल की लापरवाही से इन्क्यूबेटर में ही बुरी तरह झुलस जाता है? वह मां जिसका नवजात पोलियो का शिकार होकर हमेशा के लिए अपाहिज हो जाता है? तो क्या ये माताएं अपने प्रेम का मोल-तोल करने लग जाती हैं? कवि प्रयाग शुक्ल की पंक्तियां है-
तुम घटाना मत


अपना प्रेम


तब भी


नहीं जब लोग करने लगें उसका हिसाब


ठगा हुआ पाओअपने को


एक दिन


तब भी नहीं।


मत घटानाअपना प्रेम


बंद कर देगी तुमसे बोलना


धरती यह, चिडि़या यह,घास घास यह


मुंह फेर लेगा आसमा


नहीं , तुम नहीं घटाना


अपना प्रेम ।


प्रेम की यही परंपरा अब तक हमारी आंखों ने देखी है। मां का प्रेम, जहा आकर सारे शक दम तोड़ देते हैं। सर्वाधिक प्रेम तो कमजोर संतान पर ही बरसता है। गर्भ में बीज पड़ते ही मां एक अटूट बंधन में बंध जाती है। कानून भले ही चार माह तक गर्भस्थ को मारने की आज्ञा देता हो लेकिन वह पहले क्षण से ही नवजीवन से जुड़ जाती है। मिलेनियम स्टार अमिताभ बच्चन उन नौ महीनों को भी अपनी आयु में शामिल करते हैं। कुदरत की कई चीजें हमें नजर नहीं आती। एक कोशिका वाला अमीबा, वायरस, बैक्टरिया कहां दिखाई देते हैं लेकिन उनका जीवन है। हमारी दृष्टि के पार भी एक दुनिया है। दरअसल यह निकिता बनाम बच्चे का फैसला नहीं बल्कि कुदरत बनाम विज्ञान की लड़ाई हे हे । उसके गर्भ में अनेक रहस्य छिपे हैं जिसे जान लेने को विज्ञान बेताब है।हम एक डिजाइनर बेबी चाहते he . कौन तय करेगा कि यह पैदा होने लायक है और यह नहीं। मुंबई उच्च न्यायालय ने अपना फैसला निकिता के नहीं प्रकृति के हक में दिया है। अन्यथा मर्सी किलिंग भी जायज है। क्यों नहीं अन्य देशों की तरह हम उस कानून को लागू कर देते जहां जी नहीं पा रहे आदमी को मौत दे दी जाती है?
(डेली न्यूज़ की लोकप्रिय मैग खुशबू में ६ अगस्त २००८ प्रकाशित कमेन्ट }
लग ता है, एक बीमार बच्चे के मां-बाप बनने जा रहे निकिता और हरेश मेहता की गलती बस इतनी थी कि उन्होंने अस्पतालों के अवैध पिछले दरवाजों का इस्तेमाल नहीं किया और कानून के रास्ते से अपनी मांग को पूरा करने का प्रयास किया, वे अच्छे लोग थे, तो उन्हें निराशा हाथ लगी। कानून के मुताबिक, 20 हफ्ते बाद केवल मां के जीवन के खतरे में होने की स्थिति में ही गर्भपात करवाया जा सकता है, लेकिन 20 हफ्ते बाद गर्भस्थ शिशु कैसा भी हो, उसे जन्म देना पड़ेगा। यानी निकिता को एक ऐसे शिशु को जन्म देना होगा, जिसके हमेशा अपंग और बीमार रहने की आशंका है। जब वह लाचार शिशु मां को घर में कैद कर देगा, तब उस मां के दर्द में शरीक होने कोई नहीं आएगा। अपंग बच्चों को पालने में जो दर्द होता है और अपंग बच्चों के प्रति समाज का जो रवैया है, उसे देखते हुए अपंग बच्चे के साथ-साथ उसके पालकों की जिंदगी भी किसी नर्क से कम नहीं होती और सर्वाधिक भुगतती है मां। हमारे देश में कई कथित नारी-समर्थक हैं, जिन्हें निकिता के बीमार गर्भस्थ शिशु की बड़ी चिंता है, वे उसके जन्म के पक्ष में हैं। गर्भस्थ शिशु के अधिकार की बात चल रही है, मां का अधिकार गया भाड़ में! वास्तव में जो शिशु अजन्मा है, उसे लेकर भावुक तो हुआ जा सकता है, लेकिन उस शिशु पर पूरी तरह से मां का हक है, क्योंकि वह मां के शरीर का ही विस्तार है। अंतिम सत्य यही है कि मां क्या चाहती है? मां, अगर उस शिशु को नहीं चाहती, तो मां के निर्णय में कोई भी हस्तक्षेप अमानवीय होगा। विज्ञान अगर उस मां की किसी भी तरह से मदद कर सकता है, तो विज्ञान को ऐसा करने देना चाहिए। हमारा दुभाüग्य है, अंबुमणि रामदास जैसे लोग कह रहे हैं, महज एक मां के कारण कानून में बदलाव नहीं किया जा सकता। अंबुमणि को नहीं पता, कितने लोग यही काम अस्पतालों के पिछले दरवाजे से करवा रहे हैं। निकिता जैसे मामले नए नहीं हैं, लेकिन पहली बार ऐसा कोई मामला अदालत के सामने आया है और निराशा हाथ लगी है। आश्चर्य, भ्रमित नारिवादियों के मन में गर्भस्थ कोशिकाओं, शिशुओं के प्रति ममत्व जाग उठा है। अगर हम गर्भ में पल रहे अमीबा, कोशिकाओं या कहें गर्भस्थ अपुष्ट शिशु के प्रति प्रेम निभाने लगेंगे, तो सोचिए, क्या होगा? परिवार नियोजन कार्यक्रम का तो कबाड़ा हो जाएगा। परिवार नियोजन के जिन उपायों के चलते महिलाओं को घरों से कुछ मुक्ति मिली है, वे उपाय अमानवीय ठहरा दिए जाएंगे, अनर्थ हो जाएगा। मंुबई हाईकोर्ट का फैसला जरूर निकिता के पक्ष में होता, लेकिन कानून के अभाव में वह मजबूर थी। दूसरी मेडीकल रिपोर्ट ने भी कुछ खेल किया है, लेकिन जजों ने साफ कहा, कानून बनाने का काम संसद का है। अथाüत नया कानून बनना चाहिए। कुदरत या प्रकृति अच्छी चीजें देती है, तो बुरी भी देती है। वह बुरी चीज देती है, तो निस्संदेह हमें नहीं लेना चाहिए। उदाहरण के लिए, क्या हम कुदरत की देन भूकंप, बाढ़, बीमारी को सहज स्वीकार कर लेते हैं या वैज्ञानिकों से कहते हैं कि कुदरत के गुस्से को नियंत्रित करने का उपाय खोजिए। अपंग बच्चे भी कुदरत की खामियां हैं। कुदरत को गुस्सा आया होगा, तभी तो निकिता के गर्भ में बीमार शिशु पल रहा है। जन्म के बाद की शारीरिक खामियों के साथ जीने के लिए हम बाध्य हैं, लेकिन जन्म के पहले की खामियों के निस्तारण से किसी को रोकना नाइंसाफी है। क्या हम निकिता से यही कहेंगे कि रे अभागन, कुदरत ने तुझे यही दिया है, प्रसाद मानकर स्वीकार कर? अच्छी मां बनकर कष्ट भोगती रह, सबके ताने सुन? कई रातें जागकर अल्ट्रा साउंड मशीन बनाने वालों की आत्मा निश्चित रूप से दुखी होगी कि उन्होंने तो काम की मशीन बना दी, लेकिन मानवों ने उसका पूरा सकारात्मक लाभ नहीं लिया। बेशक, प्रकृति सोलह आना पावन नहीं है। दुनिया में अपंगता के खिलाफ जंग जहां तक संभव हो, होनी चाहिए।

(ज्ञानेश उपाध्याय की डेली न्यूज़ में 9 अगस्त 2008 को प्रकाशित टिप्पणी


)

टिप्पणियाँ

  1. Aapko meri original pratikriya post par deni thi, chapa hua lekh to uska aadha bhi nahi hai aur kaphi kata-pita hua hai

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  2. gyaneshji
    mai samajhti hoon ki akhbar me prakashit samagri ko to blog ke madhyam se sajha kiya ja sakta he lekin aapki diary ,khat ya e khat aapke niji hen.un par aapka haq he. aap khud kyon nahin use apne blog par prakashit karte? shukriya.

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  3. यानी ! ज्ञानेश जी की माने तो अखबार में
    जो छपता है वो ओरिजनल नही होता....??????

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