इन्हें मज़हब जानना है उन्हें जाति
मानवता ही सबसे बड़ा धर्म है; धर्म निजी आस्था का विषय है; धर्म को अपनी आस्तीन पर पहनने की क्या ज़रुरत है, अक्सर विद्वानों से हम ऐसी बातें सुनते हैं लेकिन क्या वाकई इन बातों के कोई मायने हैं और क्या कोई है जो इस दौर में ऐसे पाठ पढ़ने और पढ़ाने में दिलचस्पी रखता हो ? जो नया पाठ पढ़ाया गया है वह यह कि पैदा होते ही बच्चे का धर्म लिखो। अब अस्पताल में आंख खोलते ही बच्चे के साथ ही उसके माता-पिता का धर्म भी दर्ज़ होगा (अगर वे अलग-अलग धर्म के अनुयाई हैं तो वह भी) और वही फिर राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के साथ,मतदाता सूची,आधार संख्या, संपत्ति जैसे तमाम दस्तावेजों में अपडेट हो जाएगा। संभव है कि इससे सरकार किसी डेटा की तलाश में हो और वह धर्म विशेष के लिए कल्याणकारी योजनाएं लाकर देश की तस्वीर बदल देना चाहती हो। सवाल यही है कि सरकार को आखिर संप्रदाय क्यों जानना है और विपक्ष की जाति में दिलचस्पी क्यों है। ऐसा लगता है कि दोनों में से कोई भी नागरिक को उसके असली अधिकार नहीं देना चाहता। पहले जाति -धर्म पूछेंगे फिर तुम्हारे लिए काम करेंगे। वोट के लिए सियासत की दुनिया इसी स्तर पर उतर आई है। आज जो नज़र आ रहा