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इन्हें मज़हब जानना है उन्हें जाति

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मानवता ही सबसे बड़ा धर्म है;  धर्म निजी आस्था का विषय है; धर्म को अपनी आस्तीन पर पहनने की क्या ज़रुरत है, अक्सर विद्वानों से हम ऐसी बातें सुनते हैं लेकिन क्या  वाकई  इन बातों के कोई मायने हैं और क्या कोई है जो इस दौर में ऐसे पाठ पढ़ने और पढ़ाने में दिलचस्पी रखता हो ? जो नया पाठ पढ़ाया गया है वह यह कि पैदा होते ही बच्चे का धर्म  लिखो।  अब अस्पताल में आंख खोलते ही बच्चे के साथ ही उसके माता-पिता का धर्म भी दर्ज़ होगा (अगर वे अलग-अलग धर्म के अनुयाई हैं तो वह भी) और वही फिर राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के साथ,मतदाता सूची,आधार संख्या, संपत्ति जैसे तमाम दस्तावेजों में अपडेट हो जाएगा। संभव है कि इससे सरकार किसी डेटा की तलाश में हो और वह धर्म विशेष के लिए कल्याणकारी योजनाएं लाकर  देश की तस्वीर बदल देना चाहती हो। सवाल यही है कि सरकार को आखिर संप्रदाय क्यों जानना है और विपक्ष की जाति में दिलचस्पी क्यों है। ऐसा लगता है कि दोनों में से कोई भी नागरिक को उसके असली अधिकार नहीं देना चाहता। पहले जाति -धर्म पूछेंगे फिर तुम्हारे लिए काम करेंगे। वोट के लिए सियासत की दुनिया इसी स्तर पर उतर आई है।   आज जो नज़र आ रहा

वैवाहिक दुष्कर्म : कब होगा ना का मतलब ना ?

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शादी वैवाहिक दुष्कर्म का लाइसेंस नहीं है ,सहमति सबसे ज़रूरी है  मैरिटल रेप या  वैवाहिक बलात्कार  की अवधारणा ही भारतीय समाज को अनुचित लगती है।समाज  इस बात को गले ही नहीं उतार पाता कि आख़िर पति की मर्ज़ी को कोई पत्नी अस्वीकार भी कर सकती है। जहां पत्नी की इच्छा के लिए स्वीकार्यता ही ना हो वहां इसे अपराध कैसे माना  जा सकता है। बहरहाल ऐसा जरूर है कि अगर कोई पति, पत्नी की इच्छा को समझता है तो उसे नेक और गुणी समझा जाता है लेकिन  जो ऐसा नहीं भी है तो यह कोई मुद्दा नहीं है। सब चलता है। आखिर शादी की ही किस लिए है,बीवी लाए ही क्यों हैं । ऐसी सोच के दायरे में भारत में अब भी मेरिटल रेप अपराध नहीं माना जाता है। कानून पतियों को इससे मुक्त रखता है जबकि दुनिया के 150 देश इसे अपराध मानते हुए कानून बना चुके हैं। इसके बावजूद बीते कुछ सालों में  जब भी, जिस भी रूप में यह मसला भारतीय न्यायालय  के सामने आया, संवेदनशीलता बरती गई। खासकर दिल्ली और कर्नाटक उच्च न्यायालय के फैसलों ने नई बहस छेड़ी और जब उन्हें सु प्रीम कोर्ट  में   चुनौती दी गई तब सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जल्दि ही एक संवैधानिक पीठ इन मामलों की सुनवाई कर

ऑनर किलिंग: झूठे दंभ में अपनों को ही लीलते अपने

"न्याय और शक्ति को एक साथ लाया जाना चाहिए ताकि जो कुछ न्यायसंगत है वह शक्तिशाली हो सके और जो शक्तिशाली है वह न्यायपूर्ण हो"-ब्लैज़ पास्कल  ऐसा कौन प्राणी इस धरती पर होगा जो अपने झूठे दम्भ में अपनों को ही समाप्त कर देता होगा। किसी जंगल राज में भी ऐसा नहीं देखा जाता जो मनुष्यों ने अपनी कथित सभ्य दुनिया में रचा लिया है।अपने झूठे मान के लिए अपनों के ही क़त्ल के बाद कानून और व्यवस्था भी किसी लाचार का भेस धर कर कौने में बैठी टुकुर-टुकुर ताका करती है। जो ऐसा नहीं होता तो क्यों इन अपराधियों का कंविक्शन रेट केवल दो फीसदी  होता। कभी खाप, कभी परिवार तो कभी समाज जज बनकर   ऑनर किलिंग जैसी भयावह हिंसा को   सही ठहराने लगते  हैं और व्यवस्था अपराधी की हमदर्द बन, उसे बचने के रास्ते बताने लगती है।  देश में हर हिस्से में ऐसी घटनाएं हो रही हैं लेकिन एनसीआरबी (नेशनल क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो )के आंकड़े कहते हैं 2020 में देशभर में केवल 25 मामले ऑनर किलिंग्स के दर्ज हुए हैं। युवा लड़के-लड़कियाँ मौत के घाट उतार दिए जाते हैं और लड़के अपहरण के मामले बना कर  जेल के अंदर पहुंचा दिए जाते हैं। जबकि इनमें से अधिकांश

फ्रांस की ये गारंटी अद्वितीय है

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फ्रांस दुनिया का ऐसा पहला और अकेला देश बना गया है जहाँ गर्भपात का अधिकार संवैधानिक अधिकार हो गया है। 4 मार्च को आए इस ऐतिहासिक कानूनी संशोधन के बाद जहां राजधानी पेरिस में  महिलाओं ने  एफ़िल टॉवर पर चढ़कर ख़ुशी का इज़हार किया वहीं पूरी दुनिया कुछ हैरत में ही रही।ऐसा इसलिए भी कि  मनुष्य की आज़ादी और निजता को संबसे ज़्यादा तवज्जो देने वाला देश समझे जाने वाले अमेरिका ने खुद बीते वर्ष जून में महिलाओं के इस अधिकार को कम कर दिया था। वह वाकई कुछ दकियानूसी रवैया अपनाते हुए पीछे चला गया । फ्रांस ने बता दिया  है कि फ्रेंच रेवोलुशन के बाद से जो मानव अधिकारों की दिशा में  सुधार का जिम्मा उन्होंने लिया वह लगातार बढ़ता ही जा रहा है। उसकी सोच में लिंग को लेकर कोई भेद नहीं। कुछ लोग कह रहे हैं कि यह वहां के राष्ट्रपति ने अपनी घटती लोकप्रियता को बढ़ाने के लिए ऐसा काम कर दिया है जिसे विरोधियों को भी सराहना पड़ रहा है। भारत के बारे में कहा जाए तो गर्भपात कानून को लेकर फ्रांस भले ही ना हो लेकिन अमेरिका से कहीं आगे है।  मार्च की 4 तारीख़ को फ्रांस के कानूनविदों ने महिलाओं के गर्भपात के अधिकार को संविधान में प्रतिष्ठाप

सरोगेसी : 'फिलहाल' अकेली और अविवाहित को नहीं है इजाज़त

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गैरज़रूरी राजनीतिक बहसों और अनर्गल प्रलाप के बीच भी नागरिक के अधिकार और व्यवस्था के बीच निरंतर बहस चलती रहती है और इसका नतीजा होता है कि धीरे-धीरे ही सही नागरिक को उसके अधिकार मिलते  जाते  हैं । देश में सरोगेसी कानून ने लम्बी दूरी तय की है। अपने खुद के बच्चे को कुदरती तौर जन्म देने में असमर्थ माता -पिता  सरोगेसी  तकनीक का सहारा लेते हैं। इसमें मां के अंडे (एग) और पिता के शुक्राणु का बाहर फर्टिलाइजेशन करवा कर भ्रूण को किसी स्वस्थ स्त्री के शरीर में रख दिया जाता है जो नौ महीने बाद एक करार के तहत बच्चे को उसके माता -पिता को सौंप देती है। जब ऐसा सब आज़ादी के साथ हो रहा था भारत दुनिया का ' सरोगेसी हब' देश बन चुका था। देश दुनिया से जोड़े यहाँ आकर बच्चे की ख्वाहिश पूरी कर रहे थे। देश के कुछ शहर तो किराए की कोख की व्यावसायिक  राजधानी बन चुके थे। इसकी दिक्कतों को समझते हुए पहले इसमें संशोधन हुआ और हाल ही में  सरोगेसी  (नियमन) अधिनियम 2021 में  एक और संशोधन केंद्र सरकार ने किया है जिसके   मुताबिक अब   सरोगेसी से  बच्चा चाहने वाली तलाकशुदा और विधवा महिलाएं स्पर्म (शुक्राणु) या एग (अंडाशय) बा

सरोगेसी कानून- 'फिलहाल' सब ठीक नहीं है

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  "अगर आप में सामर्थ्य है कि आप किसी को खुशियां दे सकते हैं तो फिर देर मत कीजिये। दुनिया को इसकी ज़रुरत है "-जर्मनी केंट   सरोगेसी शब्द लेटिन भाषा से आया है।  सरोगेट  का अर्थ है विकल्प या विस्थापन, किसी एक की जगह दूसरे का विस्थापन। सरोगेट मदर्स यानी वे माताएं जो दूसरे का गर्भ अपने भीतर रखती हैं और फिर बच्चे के जन्म के बाद उसके माता पिता को सौंप देती हैं,  जिन्होंने उससे करार किया था। ऐसा अपनी भावनाओं,हार्मोन्स के ख़िलाफ़ जाकर करना होता है फिर भले ही करार आपने अपनी मर्ज़ी से क्यों ना किया हो। कुछ समय पहले तक इस करार के एवज में गर्भ में रखने वाली  सरोगेट मदर को पैसा और देखभाल दोनों मिलती थी,अब कानूनन ऐसा संभव नहीं है।  व्यावसायिक सरोगसी अब अपराध हैं जिसके दंड स्वरुप दस साल की सजा और दस लाख रुपयों का जुर्माना हो सकता है। इससे पहले  भारत 'सरोगेसी हब' के बतौर दुनिया में उभरने लगा था। दुनिया भर के जोड़े फिर चाहे वे समलैंगिक हो या सामान्य, पति -पत्नी जो माता-पिता नहीं बन पा रहे थे, भारत का रुख कर रहे थे। यहां  तक की अकेली ,तलाकशुदा और विधवा महिलाएं भी संतान की चाहत में  सरोगेसी क

सबसे ज़रूरी होता है सायरन की तरह गूंज जाना

"यदि मैं स्त्री के रूप में पैदा होता तो पुरुषों द्वारा थोपे गए हर अन्याय का जमकर विरोध करता तथा उनके खिलाफ विद्रोह का झंडा बुलंद करता" -महात्मा गांधी  रेवा का घर जाने का बिलकुल मन नहीं था। ऑफिस से तेज बाइक चलाकर ईपी में फिल्म देखना चाहती थी। जयपुर के कैफे 'क्यूरियस लाइफ'  में कैपेचिनो का स्वाद लेते हुए स्टेचू सर्कल की रोशनी में नहाते हुए जनपथ से गुजरते हुए बेवजह जेएलएन मार्ग का चक्कर काटना चाहती थी, फिर उसने अपना हुलिया चैक किया। स्लीवलैस टॉप और शॉर्ट्स ! नहीं...आज नहीं। उसने सिर को झटका और वक्त से घर पहुंच गई।  कई बार रेवा का मन करता है कि वह इस शहर को जिए। कभी नुक्कड़वाली पान की दुकान पर ही खड़ी हो जाए, तो कभी थड़ी या गुमटी के बाहर  पड़े  उन मुड्ढों पर चाय की चुस्कियां ले और कभी रैन बसेरे के बाहर खड़ी हो वहां की रात पर भरपूर निगाह डाले। भीषण सर्दी से बचने के लिए बेघर लोगों के लिए जयपुर नगर निगम जगह-जगह रैन बसेरों का निर्माण करता है। एक बार पहुंच भी गई एक रैन बसेरे के बाहर लेकिन  एक पुलिस वाला जो उसे कुछ देर से देख रहा था, बोला- मैडम घर जाओ...यहां अच्छे लोग नहीं आते। क